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________________ श्रुतज्ञान] [151 कालिय सन्नित्ति तमो जस्स मई, सो य तो मणोजोग्गे / खंघेणंते घेत्तु मन्नइ तल्लद्धिसंपत्तो॥" उक्त पदों की व्याख्या ऊपर दी जा चुकी है। जैसे नेत्रों में ज्योति होने पर प्रदीप के प्रकाश से वस्तु तत्त्व की स्पष्ट जानकारी हो जाती है, उसी प्रकार मनोलब्धि-सम्पन्न प्राणी मनोद्रव्य के आधार से विचार-विमर्श आदि के द्वारा आगे-पीछे की बात को भली-भांति जान लेने के कारण संज्ञी कहलाता है। किन्तु जिसे मनोलब्धि प्राप्त नहीं है, वह असंज्ञी होता है। असंज्ञी जीवों में संमूछिम पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय द्वीन्द्रिय, और एकेन्द्रिय, सभी का अन्तर्भाव हो जाता है। यहाँ शंका की जा सकती है कि सूत्र में जब 'कालिकी उपदेश' का उल्लेख किया गया है, तब दीर्घकालिको उपदेश कैसे बताया गया है ? उत्तर में कहा जाता है कि यहाँ 'कालिको' का प्राशय दीर्घकालिकी ही समझना चाहिए। भाष्यकार ने भी दीर्घकालिकी अर्थ कहा है और वृत्तिकार ने स्पष्टीकरण करते हुए बताया है "तत्र कालिक्युपदेशेनेत्यत्रादिपदलोपाद्दीर्घकालिक्युपदेशेनेति द्रष्टव्यम् / " अर्थात् 'कालिकी' पद में प्रादि के 'दीर्घ' शब्द का लोप हो गया है / जिस प्रकार मनोलब्धि स्वल्प, स्वल्पतर और स्वल्पतम होती है, उसी प्रकार अस्पष्ट, अस्पष्टतर और अस्पष्टतम अर्थ की ज्ञप्ति होती है। उसी प्रकार संज्ञी पंचेन्द्रिय से संमूछिम पंचेन्द्रिय में अस्पष्ट ज्ञान होता है, चतुरिन्द्रिय में उससे न्यून, त्रीन्द्रिय में और भी न्यून तथा द्वीन्द्रिय में अस्पष्टतर होता है। एकेन्द्रिय में अस्पष्टतम होता है / असंज्ञी जीव होने से इनका श्रुत असंज्ञीश्रुत कहलाता है। हेतु-उपदेश---जिसकी बुद्धि अपने शरीर के पोषण के लिए उपयुक्त आहार में प्रवृत्त तथा अनुपयुक्त आहार आदि से निवृत्त है, उसे हेतु-उपदेश से संज्ञी कहा जाता है / इस दृष्टि से चार त्रस संज्ञी हैं और पाँच स्थावर असंज्ञी। उदाहरण स्वरूप-मधुमक्खी इधर-उधर से मकरंद-पान करके पुनः अपने स्थान पर आ जाती है। मच्छर आदि निशाचर दिन में छिपे रहकर रात्रि को बाहर निकलते हैं तथा मक्खियाँ शाम को किसी सुरक्षित स्थान में बैठ जाती हैं। वे सर्दी-गरमी से बचने के लिए धूप से छाया में और छाया से धूप में प्राते जाते हैं तथा दुःख से बचने का प्रयत्न करते हैं / इसलिये ये सब संज्ञी कहलाते हैं। किन्तु जिन जीवों को इष्ट-अनिष्ट में प्रवृत्ति-निवृत्ति नहीं होती वे असंज्ञी होते हैं। जैसे-वृक्ष, लता आदि पाँच स्थावर / दूसरे शब्दों में हेतु-उपदेश की अपेक्षा पाँच स्थावर असंज्ञी होते हैं शेष सब संजी। कहा भी है : कृमिकीटपंतगाद्याः, समनस्काः जंगमाश्चतुर्भेदाः। अमनस्काः पंचविधाः, पृथिवीकायादयो जीवाः / / इस कथन से भी इस बात की पुष्टि होती है कि ईहा आदि चेष्टाओं से युक्त कृमि, कीट पतंगादि त्रस जीव संज्ञी हैं, तथा पृथ्वीकायादि पाँच स्थावर जीव असंज्ञी। दृष्टिवादोपदेश-दृष्टि दर्शन को कहते हैं तथा सम्यक्ज्ञान का नाम संज्ञा है। ऐसी संज्ञा से युक्त जीव संज्ञी कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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