________________ मतिज्ञान ] [133 धारणा के एक अर्थवाले, नाना घोष और नाना व्यंजन वाले पाँच नाम इस प्रकार हैं(१) धारणा (2) साधारणा (3) स्थापना (4) प्रतिष्ठा और (5) कोष्ठ / यह धारणा-मतिज्ञान हुआ। विवेचन-धारणा के भी पूर्ववत् छह भेद हैं तथा एकार्थक, नाना घोष और नाना व्यंजनवाले पाँच नाम इस प्रकार बताए गये हैं (1) धारणा–अन्तर्मुहूर्त तक पूर्वोक्त अपाय के उपयोग का सातत्य, उसका संस्कार और संख्यात या असंख्यात काल व्यतीत हो जाने पर योग्य निमित्त मिलने पर स्मृति का जाग जाना धारणा है। (2) साधारणा-जाने हुए अर्थ को स्मरणपूर्वक अन्तर्मुहूर्त तक धारण किये रहना साधारणा है। (3) स्थापना---निश्चय किये हुए अर्थ को हृदय में स्थापन किये रहना / उसे वासना (संस्कार) भी कहा जाता है। (4) प्रतिष्ठा-वाय के द्वारा निर्णीत अर्थों को भेद प्रभेदों सहित हृदय में स्थापित करना प्रतिष्ठा कहलाता है। (5) कोष्ठ-कोष्ठ में रखे हुए सुरक्षित धान्य के समान ही हृदय में किसी विषय को पूरी तरह सुरक्षित रखना कोष्ठ कहलाता है / यद्यपि सामान्य रूप में इनका अर्थ एक ही प्रतीत होता है फिर भी इन ज्ञानों की उत्तरोत्तर होने वाली विशिष्ट अवस्थाओं को प्रदर्शित करने के लिए पर्याय नामों का कथन किया गया है / ___ ज्ञान का जिस क्रम से उत्तरोत्तर विकास होता है, सूत्रकार ने उसी क्रम से अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा का निर्देश किया है / अवग्रह के अभाव में ईहा नहीं, ईहा के अभाव में अवाय नहीं और अवाय के अभाव में धारणा नहीं हो सकती। ___ यहाँ ज्ञातव्य है कि मतिज्ञान के करणभेद की अपेक्षा से 28 मूल भेद किये गए हैं, किन्तु ये 28 भेद विषय की दृष्टि से वारह-बारह प्रकार के हो जाते हैं, अर्थात् बहु, बहुविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, उक्त, अनुक्त आदि बारह प्रकार के विषयों के कारण मतिज्ञान तीन सौ छत्तीस प्रकार का है। इनमें से व्यंजनावग्रह के मन और नेत्रों को छोड़ कर चार ही इन्द्रियों से उत्पन्न होने के कारण 48 भेद हैं, जबकि अर्थावग्रह 72 प्रकार का है / प्रश्न यह है कि जब अवग्रह सामान्य मात्र को ग्रहण करता है तो बहु (बहुत) बहुविध (बहुत प्रकार के) आदि को किस प्रकार ग्रहण कर सकता है ? विशेष को जाने विना ऐसा ज्ञान नहीं हो सकता / इस प्रश्न का उत्तर निम्नलिखित है अर्थावग्रह दो प्रकार का है—नैश्चयिक और व्यावहारिक / व्यंजनावग्रह के पश्चात् जो एकसामयिक अर्थावग्रह होता है, वह नैश्चयिक (पारमार्थिक) अर्थावग्रह है। तत्पश्चात् ईहा और अवायज्ञान होते हैं। किन्तु बहुत बार अवाय द्वारा पदार्थ का निश्चय हो जाने के अनन्तर भी उसके किसी नवीन धर्म को जानने की अभिलाषा होती है / वह ईहा है / उसके पश्चात् पुन: उस नवीन धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org