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________________ 134] [नन्दीसूत्र का निश्चय-अवाय होता है। ऐसी स्थिति में जिस अवाय के पश्चात् पुनः ईहा ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अवाय, ईहाज्ञान का पूर्ववर्ती होने के कारण व्यावहारिक (उपचरित) अवग्रह कहा जाता है / इस प्रकार जिस-जिस अवाय के पश्चात नवीन-नवीन धर्मों को जानने की अभिलाषा (ईहा) उत्पन्न हो, वे सभी अवाय व्यावहारिक अर्थावग्रह में ही परिगणित हैं। उदाहरणार्थ- 'यह मनुष्य है' इस प्रकार के निश्चयात्मक अवायज्ञान के पश्चात् 'देवदत्त है या जिनदत्त ?' यह संशय हुआ। फिर 'जिनदत्त होना चाहिए' यह ईहाज्ञान होने के अनन्तर 'जिनदत्त ही है' यह अवाय ज्ञान हुा / इस क्रम में 'यह मनुष्य है' यह अवाय व्यावहारिक अर्थावग्रह कहा जाएगा। किन्तु जिस अवाय के पश्चात् नवीन धर्म को जानने की ईहा नहीं होती, उसे व्यावहारिक अर्थावग्रह नहीं कहा जाता, वह अवाय ही कहलाता है।' अवग्रह आदि का काल 61-(1) उग्गहे इक्कसमइए (2) अंतोमुहुत्तिआ ईहा, (3) अंतोमुहुत्तिए प्रवाए (4) धारणा संखेज्जं वा कालं, असंखेज वा कालं / // सूत्र० 35 // 61-(1) अवग्रह ज्ञान का काल एक समय मात्र का है। (2) ईहा का काल अन्तर्मुहूर्त है / (3) अवाय भी अन्तर्मुहूत्त तक होता है तथा (4) धारणा का काल संख्यात अथवा (युगलियों की अपेक्षा से) असंख्यात काल है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में चारों का कालप्रमाण बताया गया है / अर्थावग्रह एक समय तक, ईहा और अवाय का काल अलग-अलग अन्तर्मुहूर्त का है / धारणा अन्तर्मुहूर्त से लेकर संख्यात और असंख्यात काल तक रह सकती है। इसका कारण यह है कि यदि किसी संज्ञो प्राणी की प्रायु संख्यातकाल को हो तो धारणा संख्यातकाल तक और अगर अायु असंख्यात काल को हो तो धारणा भी असंख्यात काल पर्यन्त रह सकती है। धारणा की प्रबलता से प्रत्यभिज्ञान तथा जाति-स्मरण ज्ञान भी हो सकता है / अवाय हो "सामण्णमेत्तगहण, निच्छयो समयमोग्गहो पढ़मो। तत्तोऽणंतरमीहिय-बत्थुबिसेसस्स जोऽवाग्रो / / सो पुणरीहावाय विक्खायो, उग्गहत्ति उवयरियो। एस विसेसावेक्खा, सामन्नं गेण्हए जेण / तत्तोऽणतरमीहा, तो अवायो य तस्विसेसस्स / इह सामन्न-विसेसावेक्खा, जावन्तिमो भेग्रो / सव्वत्थेहावाया निच्छयग्रो, मोत्तुमाइसामन्नं / संववहारत्थं पुण, सव्वत्थावरगहोऽवायो॥ तरतमजोगाभावेऽवाओ, च्चिय धारणा तदम्तम्मि / सम्वत्थ वासणा पुण, भणिया कालन्तर सई य / / " —विशेषावश्यकभाष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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