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________________ मतिज्ञान] [ 131 (4) अवलम्बनता–जो सामान्य ज्ञान से विशेष की ओर अग्रसर हो तथा उत्तरवर्ती ईहा, अवाय और धारणा तक पहुँचने वाला हो उसे अवलम्बनता कहते हैं / (5) मेधा-मेधा सामान्य-विशेष को ही ग्रहण करती है / एगठ्ठिया-इस पद के भावानुसार, यद्यपि अवग्रह के पाँच नाम बताए गए हैं तदपि ये पाँचों नाम शब्दनय की दृष्टि से एक ही अर्थयुक्त समझने चाहिये / समभिरूढ तथा एवंभूत नय की दृष्टि से पांचों के अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। नाणाधोसा-अवग्रह के जो पाँच पर्यायान्तर बताए गये हैं, उनका उच्चारण भिन्न-भिन्न है। नाणावंजना-अवग्रह के उक्त पाँचों नामों में स्वर और व्यंजन भिन्न भिन्न हैं। (2) ईहा ५८-से कि तं ईहा ? ईहा छविहा पण्णता, तं जहा--(१) सोइंदिय-ईहा (2) चक्खिदिय-ईहा (3) घाणिदिय-ईहा (4) जिन्भिदिय-ईहा (5) फासिदिय-ईहा (6) नोइंदिय-ईहा। तीसे णं इमे एगट्ठिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नामधिज्जा भवंति, तं जहा-(१) प्राभोगणया (2) मग्गणया (3) गवेसणया (4) चिंता (5) वोमंसा, से तं ईहा / ५८-भगवन ! वह ईहा कितने प्रकार की है ? ईहा छह प्रकार की कही गई है / जैसे-(१) श्रोत्रेन्द्रिय-ईहा (2) चक्षु-इन्द्रिय-ईहा (3) घ्राण-इन्द्रिय-ईहा (4) जिह्वा-इन्द्रिय-ईहा (5) स्पर्श-इन्द्रिय-ईहा और (6) नोइन्द्रिय-ईहा / ईहा के एकार्थक, नानाघोष, और नाना व्यंजन वाले पाँच नाम इस प्रकार हैं(१) प्राभोगनता (2) मार्गणता (3) गवेषणता (4) चिन्ता तथा (5) विमर्श / विवेचन—एकार्थक, नानाघोष तथा नाना व्यंजनों से युक्त ईहा के पांच नामों का विवरण इस प्रकार है-- (1) आभोगनता-अर्थावग्रह के अनन्तर सद्भूत अर्थविशेष के अभिमुख पर्यालोचन को आभोगनता कहा जाता है / टीकाकार कहते हैं-"प्राभोगनं-अर्थावग्रह-समनन्तरमेव सद्भूतार्थविशेषाभिमुखमालोचनं, तस्य भाव प्राभोगनता।" (2) मार्गणता-अन्वय एवं व्यतिरेक धर्मों के द्वारा पदार्थों के अन्वेषण करने को मार्गणा कहते हैं। (3) गवेषणता-व्यतिरेक धर्म का त्यागकर, अन्वय धर्म के साथ पदार्थों के पर्यालोचन करने को गवेषणता कहा गया है। (4) चिन्ता-पुनः पुनः विशिष्ट क्षयोपशम से स्वधर्मानुगत सद्भूतार्थ के विशेष चिन्तन को चिन्ता कहते हैं। कहा भी है-"ततो मुहुर्मुहुः क्षयोपशमविशेषतः स्वधर्मानुगतसद्भतार्थविशेषचिन्तनं चिन्ता।" (5) विमर्श---"तत ऊर्ध्वं क्षयोपशमविशेषात् स्पष्टतरं सद्भूतार्थविशेषाभिमुखव्यतिरेकधर्मपरित्यागतोऽन्वयधर्मापरित्यागतोऽन्वयधर्मविमर्शनं विमर्शः / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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