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________________ 130] [नन्दीसूत्र ईहा, अवाय और धारणा से स्पष्ट, एवं परिपक्व बनता है। जिस प्रकार एक छोटी सी लौ अथवा चिनगारी से विराट प्रकाशपुञ्ज बन जाता है, उसी प्रकार अर्थ का सामान्य बोध होने पर विचारविमर्श, चिन्तन-मनन एवं अनुप्रेक्षा आदि के द्वारा उसे विशाल बनाया जा सकता है / इस प्रकार अर्थ की धूमिल-सी झलक का अनुभव होना अर्थावग्रह कहलाता है। उसके बिना ईहा आदि अगले ज्ञान उत्पन्न नहीं होते / दूसरे शब्दों में ईहा का मूल अर्थावग्रह होता है / आगे सूत्रकार ने 'नोइंदिय अत्थुग्गह' पद दिया है / नोइन्द्रिय अर्थात् मन / मन भी दो प्रकार का होता है-द्रव्यरूप और भावरूप / जीव में मन:पर्याप्ति नामकर्मोदय से ऐसी शक्ति पैदा होती है, जिससे मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके द्रव्य मन की रचना की जाती है। जिस प्रकार उत्तम पाहार से शरीर पुष्ट होकर कार्य करने की क्षमता प्राप्त करता है, उसी प्रकार मनोवर्गणा के नए-नए पुद्गलों को ग्रहण करके मन कार्य करने में सक्षम बनता है। उसे द्रव्य-मन कहा जाता है। चूणिका में कहा गया है-"मणपज्जत्तिनामकम्मोदयो तज्जोग्गे मणोदव्वे घेत्तु मणत्तणेण परिणामिया दवा दव्वमणो भण्णइ।" द्रव्यमन के होते हुए जीव का मननरूप जो परिणाम है, उस को भाव-मन कहते हैं / द्रव्यमन के बिना भावमन कार्यकारी नहीं हो सकता। भावमन के अभाव में भी द्रव्यमन होता है, जैसे भवस्थ केवली के द्रव्यमन रहता है, किन्तु वह कार्यकारी नहीं होता है। जब इन्द्रियों की अपेक्षा के बिना केवल मन से ही अवग्रह होता है तब वह नोइन्द्रिय-अर्थावग्रह कहा जाता है, अन्यथा वह इन्द्रियों का सहयोगी बना रहता है। ५७--तस्स णं इमे एगट्टिया नाणाघोसा, माणावंजणा पंच नामधिज्जा भवंति, तं जहाओगेण्हणया, उवधारणया, सवणया, अवलंबणया, मेहा, से तं उग्गहे। ५७--अर्थावग्रह के एक अर्थवाले, उदात्त आदि नाना घोष वाले तथा 'क' आदि नाना व्यञ्जन वाले पाँच नाम हैं / यथा-(१) अवग्रहणता (2) उपधारणता (3) श्रवणता (4) अवलम्बनता (5) मेधा / यही अवग्रह है। विवेचन--इस सूत्र में अर्थावग्रह के पर्यायान्तर नाम दिये गये हैं / प्रथम समय में पाए हुए शब्द आदि पुद्गलों का ग्रहण करना अवग्रह कहलाता है जो तीन प्रकार का होता है / जैसेव्यंजनावग्रह, सामान्यार्थावग्रह और विशेषसामान्यार्थावग्रह। विशेषसामान्य-अर्थावग्रह औपचारिक है। (1) अवग्रहणता-व्यंजनावग्रह अन्तर्मुहूर्त का होता है / उसके प्रथम समय में पुद्गलों के ग्रहण करना रूप परिणाम को अवग्रहणता कहते हैं / (2) उपधारणता-व्यंजनावग्रह के प्रथम समय के पश्चात् शेष समयों में नये-नये पुद्गलों को प्रतिसमय ग्रहण करना, और पूर्व समयों में ग्रहण किये हुए को धारण करना उपधारणता है / . (3) श्रवणता--एक समय के सामान्यार्थावग्रह बोधरूप परिणाम को श्रवणता कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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