________________ प्रतिज्ञान] [126 से ज्ञान माना गया है / एवं व्यंजनावग्रह में भी अत्यल्प-अव्यक्त ज्ञान की कुछ मात्रा होती अवश्य है, क्योंकि यदि उसके असंख्यात समयों में लेश मात्र भी ज्ञान न होता तो उसके अन्त में अर्थावग्रह में यकायक ज्ञान कैसे हो जाता ! अतएव अनुमान किया जा सकता है कि व्यंजनावग्रह में भो अव्यक्त ज्ञानांश होता है किन्तु अति स्वल्प रूप में होने के कारण वह हमारी प्रतीति में नहीं पाता। दर्शनोपयोग महासामान्य सत्ता मात्र का ग्राहक है, जबकि अवग्रह में अपरसामान्य-- मनुष्यत्व प्रादि-का बोध होता है / ५५-से कि तं वंजणुग्गहे ? वंजणुग्गहे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-(१) सोइंदिअवंजणुग्गहे (2) घाणिदियवंजणुग्गहे (3) जिभिदियवंजणुग्गहे (4) कासिदियवंजणुग्गहे, से तं वंजणुग्गहे / ५५---प्रश्न-वह व्यंजनावग्रह कितने प्रकार का है ? उत्तर---व्यंजनावग्रह चार प्रकार का कहा गया है / यथा-(१) श्रोत्रेन्द्रियव्यंजनावग्रह (2) घ्राणेन्द्रियव्यंजनावग्रह (3) जिह्वन्द्रियव्यंजनावग्रह (4) स्पर्शेन्द्रियव्यंजनावग्रह / यह व्यंजनावग्रह हुग्रा। विवेचन-चक्षु और मन के अतिरिक्त शेष चारों इन्द्रियां प्राप्यकारी होती हैं / श्रोत्रेन्द्रिय विषय को केवल स्पृष्ट होने मात्र से ही ग्रहण करती है। स्पर्शन, रसन और घ्राणेन्द्रिय, ये तीनों विषय को बद्ध स्पृष्ट होने पर ग्रहण करती हैं। जैसे रसनेन्द्रिय का जब तक रस से सम्बन्ध नहीं हो जाता, तब तक उसका अवग्रह नहीं हो सकता / इसी प्रकार स्पर्श और घ्राण के विषय में भी जानना चाहिये / किन्तु चक्षु और मन को विषय ग्रहण करने के लिये स्पृष्टता तथा वद्धस्पृष्टता आवश्यक नहीं है / ये दोनों दूर से ही विषय को ग्रहण करते हैं / नेत्र अपने में प्रांजे गए अंजन को न देख पाकर भी दूर की वस्तुओं को देख लेते हैं / इसी प्रकार मन भी स्वस्थान पर रहकर ही दूर रही हुई वस्तुओं का चिन्तन कर लेता है / यह विशेषता चक्षु और मन में ही है, अन्य इन्द्रियों में नहीं। इसीलिये चक्षु और मन को अप्राप्यकारी माना गया है / इनपर विषयकृत अनुग्रह या उपघात नहीं होता जब कि अन्य चारों पर होता है। ५६---से कि तं अत्थुग्गहे ? अत्थुग्गहे छविहे पण्णते, तं जहा-(१) सोइंदिय प्रत्थुग्गहे (2) चक्खि दिय प्रत्युग्गहे (3) घाणिदिय प्रत्थुग्गहे (4) जिभिदियात्थुग्गहे (5) फासिदिय प्रत्थुग्गहे, (6) नोइंदियअत्युग्गहे। ५६–अर्थावग्रह कितने प्रकार का है ? वह छह प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) थोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह (2) चक्षुरिन्द्रियअर्थावग्रह (3) घ्राणेन्द्रियग्रर्थावग्रह (4) जिह्वन्द्रियप्रर्थावग्रह (5) स्पर्शेन्द्रियप्रर्थावग्रह (6) नोइन्द्रियार्थावग्रह / विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में अर्थावग्रह के छह प्रकार वताए गए हैं। अर्थावग्रह उसे कहते हैं जो रूपादि अर्थों को सामान्य रूप में ही ग्रहण करता है किन्तु वही सामान्य ज्ञान उत्तरकालभावी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org