________________ 128] [ नन्दीसूत्र (3) स्मृति-कालान्तर में किसी पदार्थ को देखने से अथवा किसी अन्य निमित्त के द्वारा संस्कार प्रबुद्ध होने से जो ज्ञान होता है, उसे स्मृति कहा जाता है। श्रतनिश्रित मतिज्ञान के ये चारों प्रकार क्रम से ही होते हैं / अवग्रह के बिना ईहा नहीं होतो, ईहा के बिना अवाय (निश्चय) नहीं होता और अबाय के अभाव में धारणा नहीं हो सकती। (1) अवग्रह ५४-से कि तं उम्गहे ? उग्गहे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा---प्रत्युग्महे य वंजणुग्गहे य / सूत्र० 28 / / प्रश्न-अवग्रह कितने प्रकार का है ? उत्तर--बह दो प्रकार से प्रतिपादित किया गया है / (1) अर्थावग्रह (2) व्यंजनावग्रह / विवेचन-सूत्र में अवग्रह के दो भेद बताए गए हैं / एक अर्थावग्रह और दूसरा व्यंजनावग्रह / 'अर्थ' वस्तु को कहते हैं। वस्तु और द्रव्य, ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। जिसमें सामान्य और विशेष दोनों प्रकार के धर्म रहते हैं, वह द्रव्य कहलाता है / अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा, ये चारों सम्पूर्ण द्रव्यग्राही नहीं हैं। ये प्राय: पर्यायों को ही ग्रहण करते हैं। पर्याय से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का ग्रहण स्वतः हो जाता है / द्रव्य के अवस्थाविशेष को पर्याय कहते हैं / कर्मों से आवृत देहगत अात्मा को इन्द्रियों और मन के माध्यम से ही वाह्य पदार्थों का ज्ञान होता है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर के अंगोपाङ्गनामकर्म के उदय से द्रव्येन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं तथा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से भावेन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं। द्रव्येन्द्रियाँ तथा भावेन्द्रियाँ, दोनों ही एक दूसरी के बिना अकिचित्कर हैं। इसलिए जिन-जिन जीवों को जितनी-जितनी इन्द्रियाँ मिली हैं वे उसके द्वारा उतना-उतना ही ज्ञान प्राप्त करते हैं / जैसे एकेन्द्रिय जीव को केवल स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा अर्थाव ग्रह और व्यंजनावग्रह होता है। अर्थावग्रह पटुक्रमी तथा व्यंजनावग्रह मन्दक्रमी होता है / अर्थावग्रह अभ्यास से तथा विशेष क्षयोपशम से होता है और व्यंजनावग्रह अभ्यास के विना तथा क्षयोपशम की मंदता में होता है। यद्यपि सूत्र में प्रथम अर्थावग्रह का और फिर व्यंजनावग्रह का निर्देश किया गया है किन्तु उनकी उत्पत्ति का क्रम इससे विपरीत है, अर्थात् पहले व्यंजनावग्रह और तत्पश्चात् अर्थावग्रह उत्पन्न होता है। व्यज्यते अनेनेति व्यञ्जन' अथवा 'व्यज्यते इति व्यञ्जनम्' अर्थात् जिसके द्वारा व्यक्त किया जाए या जो व्यक्त हो, वह व्यंजन कहलाता है / इस व्युत्पत्ति के अनुसार व्यंजन के तोन अर्थ फलित होते हैं-(१) उपकरणेन्द्रिय (2) उपकरणेन्द्रिय तथा उसका अपने ग्राह्य विषय के साथ संयोग और (3) व्यक्त होने वाले शब्दादि विषय / सर्वप्रथम होने वाले दर्शनोपयोग के पश्चात् व्यंजनावग्रह होता है / इसका काल असंख्यात समय है / व्यंजनावग्रह के अन्त में अर्थावग्रह होता है और इसका काल एक समय मात्र है / अर्थावग्रह के द्वारा सामान्य का बोध होता है / यद्यपि व्यंजनावग्रह के द्वारा ज्ञान नहीं होता तथापि उसके अन्त में होने वाले अर्थावग्रह के ज्ञानरूप होने से, अर्थात् ज्ञान का कारण होने से व्यंजनावग्रह भी उपचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org