________________ मतिज्ञान] [127 पातानन्तरसमुद्भूत-सत्तामात्रगोचर-दर्शनाज्जातमाद्यम्, अवान्तरसामान्याकारविशिष्टवस्तुग्रहणमवग्रहः / " -प्रमाणनयतत्त्वालोक, परि 2 सू० अर्थात्-विषय-पदार्थ और विषयी-इन्द्रिय, नो-इन्द्रिय आदि का यथोचित देश में सम्बन्ध होने पर सत्तामात्र (महासत्ता) को जाननेवाला दर्शन उत्पन्न होता है / इसके अनन्तर सबसे पहले मनुष्यत्व, जीवत्व, द्रव्यत्व आदि अवान्तर (अपर) सामान्य से यूक्त वस्तु को जाननेवाला ज्ञान अवग्रह कहलाता है। ___ जैनागमों में उपयोग के दो प्रकार बताए हैं—(१) साकार उपयोग तथा (2) अनाकार उपयोग / इन्हीं को ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग भी कहा गया है। ज्ञान का पूर्वभावी होने से दर्शनोपयोग का भी वर्णन ज्ञानोपयोग का वर्णन करने के लिए किया गया है / ज्ञान की यह धारा उत्तरोत्तर विशेष की ओर झुकती जाती है। (2) ईहा—भाष्यकार ने ईहा को परिभाषा करते हुए बताया है-अवग्रह में सत् और असत् दोनों से अतीत सामान्यमात्र का ग्रहण होता है किन्तु उसको छानबीन करके असत् को छोड़ते हुए सत् रूप का ग्रहण करना ईहा का कार्य है / प्रमाणनय-तत्त्वालोक में भी ईहा का स्पष्टीकरण करते हुए बताया है-'अवगृहीतार्थविशेषाकांक्षणमीहा / " अर्थात्-अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की जिज्ञासा को ईहा कहते हैं। दूसरे शब्दों में अवग्रह से कुछ आगे और अवाय से पूर्व सत्-रूप अर्थ को पर्यालोचनरूप चेष्टा ही ईहा कहलाती है। (3) अवाय-निश्चयात्मक या निर्णयात्मक ज्ञान को अवाय कहते हैं / प्रमाणनयतत्त्वालोक में अवाय की व्याख्या की गई है-"ईहितविशेषनिर्णयोऽवायः / " अर्थात्---ईहा द्वारा जाने गए पदार्थ में विशेष का निर्णय हो जोना अवाय है / निश्चय और निर्णय आदि अवाय के ही पर्यायान्तर हैं / इसे 'अपाय' भी कहते हैं / (4) धारणा—“स एव दृढतभावस्थापन्नो धारणा।" -प्रमाण नयतत्त्वालोक --जब अवाय ज्ञान अत्यन्त दृढ हो जाता है, तब उसे धारणा कहते हैं / निश्चय तो कुछ काल तक स्थिर रहता है फिर विषयान्तर में उपयोग के चले जाने पर वह लुप्त हो जाता है। किन्तु उससे ऐसे संस्कार पड़ जाते हैं, जिनसे भविष्य में किसी निमित्त के मिल जाने पर निश्चित किए हुए विषय का स्मरण हो जाता है। उसे भी धारणा कहा जाता है / धारणा के तीन प्रकार होते हैं (1) अविच्युति-अवाय में लगे हुए उपयोग से च्युत न होना / अविच्युति धारणा का अधिक से अधिक काल अन्तर्मुहूर्त का होता है / छद्मस्थ का कोई भी उपयोग अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक स्थिर नहीं रहता। (2) वासना-अविच्युति से उत्पन्न संस्कार वासना कहलाती है / ये संस्कार संख्यात वर्ष की आयु वालों के संख्यात काल तक और असंख्यात काल की आयु वालों के असंख्यात काल तक भी रह सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org