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________________ 126]] [नन्दीसूत्र वेष धारण किया और राजा से बोला--"महाराज ! मैं नगरी में जाता हूँ पर जब श्वेत वस्त्र हिलाकर आपको संकेत हूँ तब पाप सेना को लेकर कुछ पीछे हट जाइयेगा।" नैमित्तिक का रूप होने से उसे नगर में प्रवेश करने दिया गया और नगरवासियों ने पूछा"महाराज ! राजा कुणिक ने हमारी नगरी के चारों ओर घेरा डाल रखा है, इस संकट से हमें कैसे छुटकारा मिल सकता है ?" कूलबालक ने अपने ज्ञानाभ्यास द्वारा जान लिया था कि नगरी में जो स्तूप बना हुआ है, इसका प्रभाव जबतक रहेगा, कुणिक विजय प्राप्त नहीं कर सकता। अतः उन नगरवासियों के द्वारा ही छल से उसे गिरवाने का उपाय सोच लिया / वह बोला-"भाइयो ! तुम्हारी नगरी में अमुक स्थान पर जो स्तूप खड़ा है, जबतक वह नष्ट नहीं हो जायगा, तबतक कुणिक घेरा डाले रहेगा और तुम्हें संकट से मुक्ति नहीं मिलेगी / अतः इसे गिरा दो तो कुणिक हट जाएगा।" भोले नागरिकों ने नैमित्तिक की बात पर विश्वास करके स्तूप को तोड़ना प्रारम्भ कर दिया / इसी बीच कपटी नैमित्तिक ने सफेद वस्त्र हिलाकर अपनी योजनानुसार कुणिक को पीछे हटने का संकेत किया और कणिक सेना को कुछ पीछे हटा ले गया। नागरिकों ने जब यह देखा कि स्तप के थोड़ा सा तोड़ते ही कुणिक की सेना पीछे हट रही है तो उसे पूरी तरह भगा देने के लिये स्तूप को बड़े उत्साह से तोड़ना प्रारम्भ कर दिया। कुछ समय में ही स्तूप धराशायी हो गया। पर हुआ यह कि ज्योंही स्तूप टूटा, उसका नगर-कोट की दृढ़ता पर रहा हुया प्रभाव समाप्त हो गया और कुणिक ने तुरन्त प्रागे बढ़कर कोट तोड़ते हुए विशाला पर अपना अधिकार कर लिया / कलबालक साधु को अपने वश में कर लेने की पारिणामिकी बुद्धि वेश्या की थी और स्तूपभेदन कराकर कुणिक को विजय प्राप्त कराने में कूलबालक की पारिणामिकी बुद्धि ने कार्य किया। अश्रुतनिधित मतिज्ञान का वर्णन पूर्ण हुआ। श्रत मतिज्ञान ५३-से कि तं सुनिस्सियं? सुनिस्सियं च उब्विहं पराणतं, तं जहा---- (1) उग्गहे (2) ईहा (3) प्रधाओ (4) धारणा। // सूत्र 27 // ५३-शिष्य ने पूछा-श्रुतनिश्रित मतिज्ञान कितने प्रकार का है ? गुरु ने उत्तर दिया-वह चार प्रकार का है यथा--- (1) अवग्रह (2) ईहा (3) अवाय (4) धारणा / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि कभी तो मतिज्ञान स्वतंत्र रूप से कार्य करता है और कभी श्रुतज्ञान के सहयोग से / जो मतिज्ञान श्रुतज्ञान के पूर्वकालिक संस्कारों के निमित्त से उत्पन्न होता है, उसके चार भेद हो जाते हैं—अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। इनकी संक्षिप्त व्याख्या निम्न प्रकार से है--- (1) अवग्रह-जो ज्ञान नाम, जाति, विशेष्य, विशेषण प्रादि विशेषताओं से रहित, मात्र सामान्य को ही जानता है वह अवग्रह कहलाता है / वादिदेवसूरि लिखते हैं--"विषय-विषयिसन्नि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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