SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 120] निन्दीसूत्र वह दुखी होकर वहाँ के राजा के पास पहुँची। राजा ने सारी बात सुनी और सोच-विचारकर कहा'एक ओर बच्चे की माता को बैठाया जाय तथा दूसरी ओर उसके मुनि बन चुके पिता को / बच्चा दोनों में से जिसके पास चला जाय, उसी के पास रहेगा।' अगले दिन ही राजसभा में यह प्रबंध किया गया। वज्र की माता सुनन्दा बच्चों को लुभाने वाले आकर्षक खिलौने तथा खाने-पीने की अनेक वस्तुएँ लेकर एक ओर बैठी तथा राजसभा के मध्य में बैठे हुए अपने पुत्र को अपनी ओर आने का संकेत करने लगी। किन्तु बालक ने सोचा-"अगर मैं माता के पास नहीं जाऊंगा तो यह मोहरहित होकर आत्म-कल्याण में जुट जाएगी। इससे हम दोनों का कल्याण होगा।' यह विचारकर बालक ने न तो माता के समक्ष रखे हुए उत्तमोत्तम पदार्थों की ओर देखा और न ही वहाँ से इंच मात्र भी हिला / अब बारी आई उसके पिता मुनि धनगिरि की / मुनि ने बच्चे को संबोधित करते हुए कहा "जइसि कयझवसाओ, धम्मज्झयमूसिअं इमं वइर ! गिण्ह लहु रयहरणं, कम्म-रयपमज्जणं धीर !!" अर्थात् हे वज्र ! अगर तुमने निश्चय कर लिया है तो धर्माचरण के चिह्नभूत और कर्मरज को प्रमाजित करने वाले इस रजोहरण को ग्रहण करो। ये शब्द सुनने की ही देर थी कि बालक ने तुरन्त अपने पिता की ओर जाकर रजोहरण उठा लिया / यह देखकर राजा ने बालक प्राचार्य सिंहगिरि को सौंप दिया और उन्होंने उसी समय राजा एवं संघ की आज्ञा प्राप्त कर उसे दीक्षा प्रदान कर दी। सुनन्दा ने विचारा-"जब मेरे पति, पुत्र एवं भाई सभी सांसारिक बंधनों को तोड़कर दीक्षित हो गए हैं तो मैं ही अकेली घर में रहकर क्या करूगो ?" बस, वह भी संयम लेने के लिये तैयार हो गई और आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर हुई / प्राचार्य सिंहगिरि ने अन्यत्र विहार कर दिया। वज्रमुनि बड़ा मेधावी था। जिस समय प्राचार्य अन्य मुनियों को बाचना देते, वह एकाग्र एवं दत्तचित्त होकर सुनता रहता / मात्र सुनसुनकर ही उसने ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया और क्रमशः पूर्वो का भी ज्ञान प्राप्त किया। एक बार प्राचार्य उपाश्रय से बाहर गए हुए थे। अन्य मुनि पाहार के लिये निकल गये थे। तब वज्रमुनि ने, जो उस समय भी बालक ही थे, खेल-खेल में ही संतों के वस्त्र एवं पात्रादि को पक्तिबद्ध रखा और स्वयं उन के मध्य में बैठ गये। तत्पश्चात् उन वस्त्र-पात्रों को ही अपने शिष्य मानकर वाचना देना प्रारंभ कर दिया। जब प्राचार्य बाहर से लौटे तो दूर से ही उन्हें वाचना देने की ध्वनि सुनाई दी / वे वहीं रुककर सुनने लगे / उन्होंने वज्रमुनि की आवाज पहचानी और उनकी वाचना देने की शैली और ज्ञान को समझा। सभी कुछ देखकर वे घोर आश्चर्य में पड़ गये कि इतने छोटे से बालक मनि को इतना ज्ञान कैसे हो गया? और वाचना देने का इतना सन्दर ढंग प्रकार आया? उसकी प्रतिभा के कायल होते हुए उन्होंने उपाश्रय में प्रवेश किया। प्राचार्य को देखते ही वज्रमुनि ने उठकर उनके चरणों में विनयपूर्वक नमस्कार किया तथा समस्त उपकरणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy