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________________ मतिज्ञान] [121 को यथास्थान रख दिया। इसी बीच अन्य मुनि भी आ गए तथा आहारादि ग्रहण करके अपनेअपने कार्यों में व्यस्त हो गये / / इसके अनन्तर ग्राचार्य सिंहगिरि कुछ समय के लिए अन्यत्र विहार कर गये और वज्रमुनि को वाचना देने का कार्य सौंप गये। बालक वज्रमुनि नागमों के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य को इस सहजता से समझाने लगे कि मन्दबुद्धि मुनि भी उसे हृदयंगम करने लगे / यहाँ तक कि उन्हें पूर्व प्राप्त ज्ञान में जो शंकाएँ थीं, वज्रमुनि ने शास्त्रों की विस्तृत व्याख्या के द्वारा उनका भी समाधान कर दिया। सभी साधुओं के हृदय में वज्रमुनि के प्रति असीम श्रद्धा उत्पन्न हो गई और वे विनयपूर्वक उनसे वाचना लेते रहे। प्राचार्य पुनः लौटे तथा मुनियों से वज्रमुनि की वाचना के विषय में पूछा / मुनियों ने पूर्ण संतोष व्यक्त करते हुए उत्तर दिया- "गुरुदेव ! वज्रमुनि सम्यक् प्रकार से हमें वाचना दे रहे हैं, कृपया सदा के लिए यह कार्य इन्हें सौंप दीजिए।" प्राचार्य यह सुनकर अत्यन्त संतुष्ट एवं प्रसन्न हुए और बोले--"वज्रमुनि के प्रति आप सबका स्नेह व सद्भाव जानकर मुझे सन्तोष हुआ। मैंने इनकी योग्यता तथा कुशलता का परिचय देने के लिये ही इन्हें यह कार्य सौंपकर विहार किया था।" तत्पश्चात् यह सोचकर कि गुरुमुख से ग्रहण किये विना कोई वाचनागुरु नहीं बन सकता, प्राचार्य ने श्रुतधर वज्रमुनि को अपना ज्ञान स्वयं प्रदान किया। ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए एक समय प्राचार्य अपने संत-समुदाय सहित दशपुर नगर में पधारे / उन्हीं दिनों अवन्ती नगरी में प्राचार्य भद्रगुप्त वृद्धावस्था के कारण स्थिरवास कर रहे थे। सिंहगिरि ने अपने दो अन्य शिष्यों के साथ वज्रमुनि को उनकी सेवा में भेज दिया। वज्रमुनि ने प्राचार्य भद्रगुप्त की सेवा में रहकर उनसे दस पर्यों का ज्ञान प्राप्त किया। उसके बाद ही प्राचार्य सिंहगिरि देवलोकवासी हुए किन्तु उससे पहले उन्होंने वज्रमुनि को प्राचार्य-पद प्रदान कर दिया / अब आचार्य वज्रमुनि विचरण करते हए स्व-परकल्याण में रत हो गये। उनके तेजस्वी स्वरूप, अथाह शास्त्रीय ज्ञान, अनेक लब्धियों और इसी प्रकार की अन्य विशेषताओं ने सर्व दिशाओं में उनके प्रभाव को फैला दिया और असंख्य भटकी हुई आत्माओं ने उनसे प्रतिबोध प्राप्तकर आत्मकल्याण किया। वज्रमुनि ने अपनी पारिणामिकी बुद्धि के द्वारा ही माता के मोह को दूर करके उसे मुक्ति के मार्ग पर लगाया तथा स्वयं भी संयम ग्रहण करके अपना तथा अनेकानेक भव्य प्राणियों का उद्धार किया। १६-चरणाहत-किसी नगर में एक युवा राजा राज्य करता था। उसको अपरिपक्व अवस्था का लाभ उठाने के लिये कुछ युवकों ने प्राकर उसे सलाह दी-"महाराज ! आप तरुण हैं तो आपका कार्य-संचालन करने के लिए भी तरुण व्यक्ति ही होने चाहिए। ऐसे व्यक्ति अपनी शक्ति व योग्यता से कुशलतापूर्वक राज्य-कार्य करेंगे। वृद्धजन अशक्त होने के कारण किसी भी कार्य को ठीक प्रकार से नहीं कर सकते।" राजा यद्यपि नवयुवक था, किन्तु अत्यन्त बुद्धिमान् था। उसने उन युवकों की परीक्षा लेने का विचार करते हुए पूछा-"अगर मेरे मस्तक पर कोई अपने पैर से प्रहार करे तो उसे क्या दंड देना चाहिये ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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