________________ मतिज्ञान ] [119 पुत्र रहता था / धनगिरि का विवाह धनपाल सेठ की पुत्री सुनन्दा से हुया था / विवाह के पश्चात् ही धनगिरि की इच्छा संयम ग्रहण करने की हो गई किन्तु सुनन्दा ने किसी प्रकार रोक लिया। कुछ समय पश्चात् ही देवलोक से च्यवकर एक पुण्यवान् जीव सुनन्दा के गर्भ में आया। पत्नी को गर्भवती जानकर धनगिरि ने कहा- "तुम्हारे जो पुत्र होगा उसके सहारे ही जीवनयापन करना, मैं अब दीक्षा ग्रहण करूंगा।" पति की उत्कट इच्छा के कारण सुनन्दा को स्वीकृति देनी पड़ी। धनगिरि ने प्राचार्य सिंहगिरि के पास जाकर मुनिवृत्ति धारण करली। सुनन्दा के भाई आर्यसमित भी पहले से ही सिंहगिरि के पास दीक्षित थे। संत-मंडली ग्रामानुग्राम विचरण करने लगी। इधर नौ मास पूरे होने पर सुनन्दा ने एक पुण्यवान् पुत्र को जन्म दिया। जिस समय उसका जन्मोत्सव मनाया जा रहा था, किसी स्त्री ने करुणा से भरकर कहा ---"इस बच्चे का पिता अगर मुनि न होकर ग्राज यहाँ होता तो कितना अच्छा लगता?" बच्चे के कानों में यह बात गई तो उसे जातिस्मरण हो गया और वह विचार करने लगा --"मेरे पिताजी ने तो मुक्ति का मार्ग अपना ही लिया है, अब मुझे भी कुछ ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे मैं संसार से मुक्त हो सक तथा मेरी माँ भी सांसारिक बंधनों से छटकारा पा सके / " यह विचार कर उस बालक ने दिन-रात रोना प्रारंभ कर दिया। उसका रोना बंद करने के लिए उसकी माता तथा सभी स्वजनों ने अनेक प्रयत्न किये पर सफलता नहीं मिली। सुनन्दा बहुत ही परेशान हुई। संयोगवश उन्हीं दिनों प्राचार्य सिंहगिरि अपने शिष्यों सहित पुनः तुम्बवन पधारे / आहार का समय होने पर मुनि आर्यसमित तथा धनगिरि नगर की ओर जाने लगे / उसी समय शुभ शकुनों के आधार पर प्राचार्य ने उनसे कह दिया --"अाज तुम्हें महान् लाभ प्राप्त होगा, अतः जो कुछ भी भिक्षा में मिले, ले पाना।" गुरु की आज्ञा स्वीकार कर दोनों मुनि शहर की ओर चल दिये / जिस समय मुनि सुनन्दा के घर पहुँचे, वह अपने रोते हुए शिशु को चुप करने के लिये प्रयत्न कर रही थी। मुनि धनगिरि ने झोली खोलकर आहार लेने के लिए पात्र बाहर रखा / सुनन्दा के मन में एकाएक न जाने क्या विचार आया कि उसने बालक को पात्र में डाल दिया और कहा"महाराज! अपने बच्चे को आप ही सम्हालें।" अनेक स्त्री-पुरुषों के सामने मुनि धनगिरि ने बालक को ग्रहण किया तथा बिना कुछ कहे झोली उठाकर मंथर गति से चल दिये। आश्चर्य सभी को इस बात का हुआ कि बालक ने भी रोना बिल्कुल बंद कर दिया था। प्राचार्य सिंहगिरि के समक्ष जब वे पहुँने तो उन्होंने झोली को भारी देखकर पूछा---"यह वज्र जैसी भारी वस्तु क्या लाये हो ?" धनगिरि ने बालक सहित पात्र गुरु के आगे रख दिया। गुरु पात्र में तेजस्वो शिशु को देखकर चकित भी हुए और हर्षित भी / उन्होंने यह कहते हुए कि यह बालक आगे चलकर शासन का आधारभूत बनेगा, उसका नाम 'वज्र' ही रख दिया। बच्चा छोटा था अतः उन्होंने उसके पालन-पोषण का भार संघ को सौंप दिया। शिशु वज्र चन्द्रमा की कलाओं के समान तेजोमय बनता हुअा दिन-प्रतिदिन बड़ा होने लगा। कुछ समय बाद सुनन्दा ने संघ से अपना पुत्र वापिस माँगा किन्तु संघ ने उसे 'अन्य की अमानत' कहकर देने से इन्कार कर दिया। मन मारकर सुनन्दा वापिस लौट आई और अवसर की प्रतीक्षा करने लगी। वह अवसर उसे तब प्राप्त हुआ, तब प्राचार्य सिंहगिरि विचरण करते हए अपने शिष्य-समुदाय सहित पुनः तुम्बवन पधारे / सुनन्दा ने प्राचार्य के आगमन का समाचार सुनते ही उनके पास जाकर अपना पुत्र माँगा किन्तु प्राचार्य के न देने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org