________________ मतिज्ञान] [117 में, सर्प के बिल पर तथा कुए के किनारे पर वर्षावास बिताने वाले तीनों शिष्यों की प्रशंसा करते हुए कहा-'तुमने दुष्कर कार्य किया / ' किन्तु जब मुनि स्थूलिभद्र ने अपना मस्तक गुरु के चरणों में झुकाया तो उन्होंने कहा—'तुमने अतिदुष्कर कार्य किया है।' स्थलिभद्र के लिए गुरु के द्वारा ऐसा कहे जाने से अन्य शिष्यों के हृदय में ईर्ष्याभाव उत्पन्न हो गया। वे स्वयं को स्थूलिभद्र के समान साबित करने का अवसर देखने लगे। अगला चातुर्मास आते ही अवसर मिल गया। सिंह की गुफा में चातुर्मास करने वाले शिष्य ने इस बार कोशा वेश्या की चित्रशाला में वर्षाकाल बिताने की आज्ञा माँगी। गुरु ने उसे आज्ञा नहीं दी पर वह बिना प्राज्ञा के हो कोशा के निवास की ओर चल दिया। कोशा ने उसे अपनी रंगशाला में चातुर्मास व्यतीत करने की अनुमति दे दी। किन्तु मुनि तो उसका रूप-लावण्य देखकर ही अपनी तपस्या व साधना को भूल गया और उससे प्रेम-निवेदन करने लगा / यह देखकर कोशा को बहुत दुख हुआ किन्तु उसने मुनि को सन्मार्ग पर लाने के लिए उपाय खोज निकाला। मुनि से कहा"मुनिराज ! पहले मुझे एक लाख मोहरें दो।" भिक्षु यह माँग सुनकर चकराया और बोला-भिक्षु रे पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं है।" कोशा ने तब कहा--"नेपाल-नरेश प्रत्येक साधू को एक-एक रत्न-कंबल प्रदान करता है जिसका मूल्य एक लाख मोहरें होता है। तुम वहाँ जाकर राजा से कंबल माँग लामो और मुझे दो।" काम के वशीभूत हुया व्यक्ति क्या नहीं करता? मुनि भी अपनी संयम-साधना को एक ओर रखकर रत्न-कंवल लाने चल दिया। मार्ग में अनेक कष्ट सहता हुआ वह जैसे-तैसे नेपाल पहुँचा और वहाँ के राजा से एक कंबल माँगकर लौटा। किन्तु मार्ग में चोरों ने उसका कंबल छीन लिया और वह रोता-झींकता वापिस नेपाल गया। राजा से अपनी रामकहानी कहकर बड़ी कठिनाई से उसने दूसरा कंवल लिया और उसे एक बाँस में छिपाकर पुन: लौटा। मार्ग में लुटेरे फिर मिले किन्तु बाँस की लकड़ी में छिपे रत्न-कंबल को वे नहीं पा सके और चले गये। इसके बाद भी भूखप्यास तथा अनेक शारीरिक कष्टों को सहता हा मुनि किसी तरह पाटलिपुत्र लौटा और कोशा को उसने रत्न-कंबल दिया। किन्तु कोशा ने वह अतिमूल्यवान् रत्नकंबल दुर्गन्धमय अशुचि स्थान पर फेंक दिया। मुनि ने हड़बड़ाकर कहा-..."यह क्या किया? मैं तो अनेकानेक कष्ट सहकर इतनी दूर से इसे लाया और तुमने यों ही फेंक दिया ?" कोशा ने उत्तर दिया-"मुनिराज ! यह सब मैंने तुम्हें पुनः सन्मार्ग पर लाने के लिये किया है। रत्न-कंबल मूल्यवान् है पर सीमित मूल्य का, किन्तु तुम्हारा संयम तो अनमोल है / सारे संसार का वैभव भी इसकी तुलना में नगण्य है। ऐसे संयम-धन को तुम काम-भोग रूपी कीचड़ में डालकर मलिन करने जा रहे हो ? जरा विचार करो, जिन विषय-भोगों को तुमने विष मानकर त्याग दिया था, क्या अब वमन किये हुए भोगों को पुन: ग्रहण करोगे ?" कोशा की बात सुनकर मुनि की आँखें खुल गईं। घोर पश्चात्ताप करता हुआ वह कहने लगा "स्थूलिभद्रः स्थलिभद्रः स एकोऽखिलसाधुषु / युक्त दुष्कर-दुष्करकारको गुरुणा जगे।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org