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________________ 116] [नन्दीसूत्र राज-सेवक कोशा के यहाँ गये और स्थूलिभद्र को सारा वृत्तान्त सुनाते हुए बोले-"माप राजसभा में पधारें, महाराज ने बुलाया है / " स्थूलिभद्र उनके साथ दरबार में आया। राजा ने आसन की ओर इंगित करते हुए कहा --"तुम्हारे पिता का निधन हो गया है / अब तुम मंत्रिपद को सम्हालो।" / स्थूलिभद्र को राजा के प्रस्ताव से तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई। वह पिता के वियोग से दुखी था दी. साथ ही पिता की मत्य में राजा को ही कारण जानकर अत्यधिक खिन्न भी था। वह भली भांति समझ गया था कि राजा का कोई भरोसा नहीं। आज वह जिस मंत्रिपद को सहर्ष प्रदान कर रहा है, उसे कल कुपित होकर छीन भो सकता है। अतः अत: ऐसे पद व धन के प्राप्त करने से क्या लाभ ! इस प्रकार विचार करते-करते स्थूलिभद्र को विरक्ति हो गई। वह राज-दरबार से उलटे पैरों लौट आया और प्राचार्य सम्भूतिविजय के समक्ष जाकर उनका शिष्य बन गया / स्थूलिभद्र के मुनि बन जाने पर राजा ने श्रियक को अपना मंत्री बनाया। स्थूलिभद्र मुनि अपने गुरु के साथ ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए संयम का पालन करते रहे तथा ज्ञान-ध्यान में रत बने रहे। एक बार भ्रमण करते हुए वे पाटलिपुत्र के समीप पहुँचे तथा चातुर्मासकाल निकट होने से गुरुदेव ने वहीं वर्षावास करने का निश्चय किया। उनके स्थूलिभद्र सहित चार शिष्य थे। चारों ने ही उस बार भिन्न-भिन्न स्थानों पर वर्षाकाल बिताने की गुरु से आज्ञा ले ली। एक ने सिंह की गुफा में, दूसरे ने भयानक सर्प के बिल पर, तीसरे ने एक कुए के किनारे पर तथा चौथे स्थूलिभद्र ने कोशा वेश्या के घर पर / चारों ही अपने-अपने स्थानों पर चले गये। कोशा वेश्या स्थूलिभद्र मुनि को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई और विचार करने लगी कि पूर्व के समान ही भोग-विलास में समय व्यतीत हो सकेगा। स्थूलिभद्र की इच्छानुसार कोशा ने अपनी चित्रशाला में उन्हें ठहरा दिया। वह नित्य भांति-भांति के शृगार तथा हाव-भावादि के द्वारा उन्हें भोगों की ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करने लगी, किन्तु स्थूलिभद्र अब पहले वाले स्थूलिभद्र नहीं थे। वह तो प्रारंभ में मधुर, अाकर्षक और प्रिय लगने वाले किन्तु बाद में असहनीय पीड़ा प्रदान करने वाले किपाक फल के सदृश काम-भोगों को त्याग चुके थे। अतः किस प्रकार उनमें पुनः लिप्त होकर आत्मा को पतन की ओर अग्रसर करते ? कहा भी है:--- "विषयासक्तचित्तो हि यतिर्मोक्षं न विदति।" जिसका चित्त साधु-वेश धारण करने के पश्चात् भी विषयासक्त रहता है, ऐसी आत्मा मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकती। कोशा के लाख प्रयत्न करने पर भी उनका मन विचलित नहीं हुआ। पूर्ण निर्विकार भाव से वह अपनी साधना में रत रहे। स्थूलिभद्र का शांत एवं विकार-रहित मुख देखकर कोशा की भोग-लालसा ठीक उसी प्रकार शांत हो गई जैसे अग्नि पर शीतल जल गिरने से वह शांत हो जाती है। जब स्थूलिभद्र ने यह देखा तो कोशा को प्रतिबोधित किया। उसने श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिये। चातुर्मास की समाप्ति पर चारों शिष्य गुरु की सेवा में पहुँचे। गुरुजी ने सिंह की गुफा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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