________________ 114] [नन्दीसूत्र कि वह कुछ कमाकर नहीं लाता तो घर का खर्च कैसे चले ? प्रतिदिन पत्नी के उपालम्भ सुनसुनकर वररुचि बहुत खिन्न हुआ और एक दिन शकटार के घर गया / शकटार की पत्नी ने उसके आने का कारण पूछा तो वररुचि ने सारा हाल कह सुनाया और कहा-"मैं रोज नवीन एक सौ पाठ श्लोक बनाकर राजा की स्तुति करता हूँ किन्तु मन्त्री के मौन रहने से राजा मुझे कुछ नहीं देते और घर में पत्नी कलह किया करती है। कहती है-कुछ लाते तो हो नहीं फिर दिन भर कलम क्यों घिसते हो?" शकटार की पत्नी बुद्धिमती और दयालु थी। उसने सायंकाल शकटार से कहा--"स्वामी ! वररुचि प्रतिदिन एक सौ आठ नए श्लोकों के द्वारा राजा की स्तुति करता है। क्या वे श्लोक आपको अच्छे नहीं लगते ? अच्छे लगते हों तो आप पंडित की सराहना क्यों नहीं करते ?" उत्तर में मन्त्री ने कहा-"वह मिथ्यात्वी है इसलिये / " पत्नी ने पुनः विनयपूर्वक आग्रह करते हुए कहा-'अगर अापके उसकी प्रशंसा में कहे गये दो बोल उस गरीब का भला करते हैं तो कहने में हानि ही क्या है ?' शकटार चुप रह गया। अगले दिन जब वह दरबार में गया तो वररुचि ने अपने नये श्लोकों से राजा की स्तुति की। पत्नी की बात याद आने पर उसने मात्र इतना ही कहा-"उत्तम है।" उसके कहने को देर थी कि राजा ने उसी समय एक सौ आठ सुवर्ण- मुद्राएँ वररुचि को प्रदान कर दीं। वररुचि हर्षित होता हुया अपने घर आ गया। उसके चले जाने पर राजा से बोला-"महाराज! आपने उसे स्वर्णमुद्राएँ वृथा दीं। वह तो पुराने व प्रचलित श्लोकों से आपकी स्तुति कर जाता है।" राजा ने आश्चर्य से कहा-"क्या प्रमाण है इसका कि वे श्लोक किसी के द्वारा पूर्वरचित मंत्री ने कहा- "मैं सत्य कह रहा हूँ। वह जो श्लोक सुनाता है वे सब तो मेरी लड़कियों को भी कंठस्थ हैं। आपको विश्वास न हो तो कल ही दरबार में प्रमाणित कर दू गा।" चालाक मंत्री अगले दिन अपनी कन्याओं को ले आया और उन्हें परदे के पीछे बैठा दिया। समय पर वररुचि पाया और उसने फिर अपने नवीन श्लोकों से राजा की स्तुति की / किन्तु शकटार का इशारा पाते ही उसकी सबसे बड़ी कन्या आई और राजा के समक्ष उसने वररुचि के द्वारा सुनाये गये समस्त श्लोक ज्यों के त्यों सुना दिये / वह एक बार जो सुनती वही उसे याद हो जाता था। राजा ने यह देखकर क्रोधित होकर वररुचि को राजदरबार से निकाल दिया। वररुचि राजा के व्यवहार से बहुत परेशान हुआ। शकटार से बदला लेने का विचार करते हुए लकड़ी का एक तख्ता गंगा के किनारे ले गया। आधे तख्ते को उसने जल में डालकर मोहरों की थैली उस पर रख दी और जल से बाहर वाले भाग पर स्वयं बैठकर गंगा की स्तुति करने लगा। स्तुति पूर्ण होने पर ज्योंही उसने तख्ते को दबाया, अगला मोहरों वाला हिस्सा ऊपर उठ पाया। इस पर वररुचि ने लोगों को वह थैली दिखाते हुए कहा--"राजा मुझे इनाम नहीं देता तो क्या हुआ, गंगा तो प्रसन्न होकर देती है !" गंगा माता की वररुचि पर कृपा करने की बात सारे नगर में फैल गई और राजा के कानों तक भी जा पहुँची। राजा ने शकटार से इस विषय में पूछा तो उसने कह दिया--"महाराज! सुनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org