________________ मतिज्ञान] [111 घबराएं नहीं, मेरे पिताजी ने इस लाक्षागृह से गंगा के किनारे तक सुरंग बनवा रखी है और वहाँ घोड़े तैयार खड़े हैं / वे आपको इच्छित स्थान तक पहुंचा देंगे / शीघ्र चलिए ! आप दोनों को सुरंग द्वारा यहाँ से निकालकर मैं गंगा के किनारे तक पहुंचा देता हूँ।" इस प्रकार अमात्य धनु की पारिणामिकी बुद्धि द्वारा बनवाई हुई सुरंग से राजकुमार ब्रह्मदत्त सकुशल मौत के मुह से निकल गये तथा कालान्तर में अपनी वीरता एवं बुद्धिबल से षट्खंड जीतकर चक्रवर्ती सम्राट् बने / (10) क्षपक-एक बार तपस्वो मुनि भिक्षा के लिए अपने शिष्य के साथ गये / लौटते समय तपस्वी के पैर के नीचे एक मेंढ़क दब गया। शिष्य ने यह देखा तो गुरु से शुद्धि के लिये कहा, किन्तु शिष्य की बात पर तपस्वी ने ध्यान नहीं दिया / सायंकाल प्रतिक्रमण करने के समय पुन: शिष्य ने मेंढ़क के मरने की बात स्मरण कराते हुए गुरु से विनयपूर्वक प्रायश्चित्त लेने के लिए कहा। किन्तु तपस्वी आगबबूला हो उठा और शिष्य को मारने के लिए झपटा। झोंक में वह तेजी से आगे बढ़ा किन्तु अंधकार होने के कारण शिष्य के पास तो नहीं पहुँच पाया, एक खंभे से मस्तक के बल टकरा गया। सिर फट गया और उसी क्षण वह मृत्यू का ग्रास बन गया। मरकर वह ज्योतिष्क देव हया / फिर वहाँ से च्यवकर दृष्टि-विष सर्प की योनि में जन्मा ! उस योनि में जातिस्मरण ज्ञान से उसे न्मा का पता चला तो वह घोर पश्चात्ताप से भर गया और फिर बिल में ही रहने लगा, यह विचारकर कि मेरी दृष्टि के विष से किसी प्राणी का घात न हो जाय / उन्हीं दिनों समीप के राज्य में एक राजकुमार सर्प के काटने पर मर गया। राजा ने दुःख और क्रोध भरकर कई संपेरों को बुलाया तथा राज्यभर के सर्यों को पकड़कर मारने की आज्ञा दे दी। एक संपेरा उस दष्टि-विष सर्प के बिल पर भी जा पहुँचा। उसने सर्प को बाहर निकालने के लिए कोई दवा बिल पर छिड़क दी। दवा के प्रभाव से उसे निकलना ही था किन्तु यह सोचकर कि दृष्टि के कारण कोई व्यक्ति मर न जाए, उस सर्प ने पूछ के बल से निकलना प्रारंभ किया / ज्यों-ज्यों वह निकलता गया सपेरे ने उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये / मरते समय भी सर्प ने किंचित् मात्र भी रोष न करते हुए पूर्ण समभाव रखा और उसके परिणामस्वरूप वह उसी राज्य के राजा के यहाँ पुत्र बन कर उत्पन्न हुा / उसका नाम नागदत्त रखा गया / नागदत्त पूर्वजन्म के उत्तम संस्कार लेकर जन्मा था, अतः वह बाल्यावस्था में ही संसार से ना विरक्त हो गया और मुनि बन गया। अपने विनय, सरलता, सेवा एवं क्षमा आदि असाधारण गुणों से वह देवों के लिये भी वंदनीय बन गया। अन्य मुनि इसी कारण उससे ईर्ष्या करने लगे। पिछले जन्म में तिर्यच होने के कारण उसे भूख अधिक लगती थी। इस कारण वह अनशन तपस्या नहीं कर सकता था। एक उपवास करना भी उसके लिये कठिन था। एक दिन, जबकि अन्य मुनियों के उपवास थे, नागदत्त भूख सहन न कर पाने के कारण अपने लिए आहार लेकर आया / विनयपूर्वक हार उसने अन्य मुनियों को दिखाया पर उन्होंने उसे भूखमरा कहकर तिरस्कृत करते हए उस पाहार में थूक दिया / नागदत्त में इतना सम-भाव एवं क्षमा का जबर्दस्त गुण था कि उसने तनिक भी रोष तो नहीं हो किया, उलटे भूखा न रह पाने के कारण अपनी निन्दा तथा अन्य सभी की प्रशंसा करता रहा / ऐसी उपशान्त वृत्ति तथा परिणामों की विशुद्धता के कारण उसी समय उसे केवलज्ञान हो गया और देवता कैवल्य-महोत्सव मनाने के लिये उपस्थित हुए। यह देखकर अन्य तपस्वियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org