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________________ 104] [नन्दीसूत्र विभिन्न प्रकार के सुन्दर चित्र बनाता है कि वे सजीव दिखाई देते हैं। इसके अतिरिक्त लकड़ी को तराश कर इस प्रकार जोड़ता है कि जोड़ कहीं नजर नहीं आता। (10) आपूपिक-चतर हलवाई नाना प्रकार व्यञ्जन बनाता है तथा तोल-ताप के विना ही किसमें कितना द्रव्य लगेगा, इसका अनुमान कर लेता है। कई व्यक्ति तो अपनी कला में इतने माहिर होते हैं कि दूर-दूर के देशों तक उनकी प्रसिद्धि फैल जाती है तथा वह नगर उस विशिष्ट व्यञ्जन के द्वारा भी प्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है। (11) घट–कुम्भकार घड़ों का निर्माण करने में इतना चतुर होता है कि चलते हुए चाक पर जल्दी-जल्दी रखने के लिये भी मिट्टी का उतना ही पिंड उठाता है, जितने से घट बनता है / (12) चित्रकार-कुशल चित्रकार अपनी तूलिका के द्वारा फूल, पत्ती, पेड़, पौधे, नदी अथवा झरने आदि के ऐसे चित्र बनाता है कि उनमें असली-नकली का भेद करना कठिन हो जाता है / वह पशु-पक्षी अथवा मानव के चित्रों में भी प्राण फूक देता है / क्रोध, भय, हास्य तथा घृणा आदि के भाव चेहरों पर इस प्रकार अंकित करता है कि देखने वाला दंग रह जाय / उल्लिखित सभी उदाहरण कार्य करते-करते अभ्यास से समुत्पन्न कर्मजा बुद्धि के परिचायक हैं / ऐसी बुद्धि ही मानव को अपने व्यवसाय में दक्ष बनाती है / (4) पारिणामिको बुद्धि के लक्षण (52) अणुमान-हेउ-दितसाहित्रा, वय-विवाग-परिणामा / हिय-निस्सेयस फलवई, बुद्धी परिणामिया नाम // (५२)-अनुमान, हेतु और दृष्टान्त से कार्य को सिद्ध करने वाली, प्रायु के परिपक्व होने से पुष्ट, लोकहितकारी तथा मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाली बुद्धि पारिणामिकी कही गई है / पारिणामिको बुद्धि के उदाहरण (५३)-अभए सिट्ठी कुमारे, देवी उदियोदए हवइ राया। साहू य नंदिसेणे, धणदत्ते सावग अमच्चे // खमए अमच्चपुत्ते, चाणक्के चेव थलभ य / नासिक्क सुदरीनंदे, वइरे परिणाम बुद्धीए / चलणाहण प्रामंडे, मणो य सप्पे य खाग्गिभिदे / परिणामिय-बुद्धीए, एवमाई उदाहरणा।। से तं अस्सुयनिस्सियं। (53)-(1) अभयकुमार (2) सेठ (3) कुमार (4) देवी (5) उदितोदय (6) साधु और नन्दिघोष (7) धनदत्त (8) श्रावक (6) अमात्य (10) क्षपक (11) अमात्यपुत्र (12) चाणक्य (13) स्थूलिभद्र (14) नासिक का सुन्दरीनन्द (15) वज्रस्वामी (16) चरणाहत (17) प्रांवला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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