________________ मतिज्ञान] [81 पर लड्डु कहाँ चलनेवाला था। वह तो जहाँ था वहीं पड़ा रहा / तब ग्रामीण ने उस नागरिक धूर्त को सभी साक्षियों के समक्ष संबोधित करते हुए कहा-'भाई ! मैंने तुमसे प्रतिज्ञा की थी कि हार गया तो ऐसा लड्डू दूगा जो इस द्वार से नहीं निकल सके / अब तुम्ही देख लो यह लड्डू द्वार से नहीं निकल रहा है / चलो, अपना लड्डू ले जायो / मैं प्रतिज्ञा से मुक्त हो गया हूँ।' नागरिक धूर्त कट कर रह गया / सारे साक्षी भी कुछ न कह सके / (3) वृक्ष-कुछ यात्री एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हुए मार्ग में एक सघन आम्र-वृक्ष के नीचे विश्राम करने के लिये ठहर गये / वृक्ष पर लगे हुए ग्रामों को देखकर उनके मुंह में पानी भर प्राया। वे किसी प्रकार ग्राम प्राप्त करने का उपाय सोचने लगे / वृक्ष पर बन्दर बैठे हुए थे और उनके डर से वृक्ष पर चढ़कर आम तोड़ना कठिन था / आखिर एक व्यक्ति की औत्पत्तिकी बुद्धि ने काम दिया और उसने पत्थर उठा-उठाकर बन्दरों की ओर फेंकना प्रारम्भ कर दिया। बंदर चंचल और नकलची होते ही हैं। पत्थरों के बदले पत्थर न पाकर पेड़ से अाम तोड़-तोड़कर नीचे ठहरे हुए व्यक्तियों की ओर फेंकने लगे / पथिकों को और क्या चाहिये था, मन-मांगी मुराद पूरी हुई। सभी ने जी भरकर आम खाये और मार्ग पर आगे बढ़ गये। (4) खुड्डग (अंगूठी)-राजगृह नामक नगर के राजा प्रसेनजित ने अपनी न्यायप्रियता एवं बुद्धिबल से समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली थी। वह निष्कंटक राज्य कर रहा था। प्रतापी राजा प्रसेनजित के बहुत से पुत्र थे। उनमें एक श्रेणिक नामक पुत्र समस्त राजोचित गुणों से सम्पन्न अति सुन्दर और राजा का विशेष प्रेमपात्र था। किन्तु राजा प्रकट रूप में उस पर अपना प्रेम प्रदर्शित नहीं करता था। राजा को डर था कि पिता का प्रेम-पात्र जानकर उसके अन्य भाई ईर्ष्यावश श्रेणिक को मार न डालें / किन्तु श्रेणिक बुद्धिसम्पन्न होने पर भी पिता से प्रेम व सम्मान न पाकर मन ही मन दुःखी व क्रोधित होते हुए घर छोड़ने का निश्चय कर बैठा / अपनी योजनानुसार एक दिन वह चुपचाप महल से निकल कर किसी अन्य देश में जाने के लिए रवाना हो गया। चलते-चलते वह वेन्नातट नामक नगर में पहुंचा और एक व्यापारी की दुकान पर जाकर कुछ विश्राम के लिए ठहर गया। दुर्भाग्यवश उस व्यापारी का सम्पूर्ण व्यापार और वैभव नष्ट हो चुका था, किन्तु जिस दिन श्रेणिक उसकी दुकान पर जाकर बैठा उस दिन उसका संचित माल, जिसे कोई पूछता भी न था, बहुत ऊँचे भाव पर बिका तथा विदेशों से व्यापारियों के लाए हुए रत्न अल्प मूल्य में प्राप्त हो गये। इस प्रकार अचिन्त्य लाभ हुअा देखकर व्यापारी के मन में विचार आया 'आज मुझे जो महान् लाभ प्राप्त हुआ है इसका कारण निश्चय ही यह पुण्यवान् बालक है। आज यह मेरी दूकान पर आकर बैठा हुआ है। कोई बड़ी महान् आत्मा है यह / यों भी कितना सुन्दर और तेजस्वी दिखाई देता है।' संयोगवश उसी रात्रि को सेठ ने स्वप्न में देखा था कि उसकी पुत्री का विवाह एक 'रत्नाकर' से हो रहा है और अगले दिन ही जब श्रेणिक उसकी दूकान पर आकर बैठा और दिन भर में लाभ भी आशातीत हुआ तो सेठ को लगा कि यही वह रत्नाकर है / मन ही मन प्रमुदित होकर व्यापारी ने श्रेणिक से पूछ लिया--"आप यहाँ किसके गृह में अतिथि बन कर आए हैं ?" श्रेणिक ने बड़े मधुर और विनम्र स्वर में उत्तर दिया--"श्रीमान् ! मैं आपका ही अतिथि हूँ।" इस मधुर एवं प्रात्मीयतापूर्ण उत्तर को सुनकर सेठ का हृदय प्रफुल्लित हो गया। वह बड़े प्रेम से श्रेणिक को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org