________________ [नन्दीसूत्र मार्गदर्शक होते हैं / इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि को मति और शब्दज्ञान, दोनों ही विवाद, विकथा एवं पतन का कारण बनते हुए जीव को पथभ्रष्ट करते हैं, साथ ही दूसरों के लिये भी अहितकर बन जाते हैं। कहा जा सकता है कि जब मतिज्ञान और मति-अज्ञान दोनों ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं, तब दोनों में सम्यक्-मिथ्या का भेद किस कारण से होता है ? उत्तर यह है कि ज्ञानाबरण के क्षयोपशम से उत्पन्न हुमा ज्ञान मिथ्यात्त्वमोहनीय के उदय से मिथ्या बन जाता है। आभिनिबोधिक ज्ञान के भेद ४७-से कि तं प्राभिणिबोहियनाणं ? माभिनियोहियनाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा--सुयनिस्सियं च अस्सुनिस्सियं च / से कि तं असुयनिस्सियं ? असुनिस्सियं चउन्विहं पण्णत्तं, तं जहा उत्पत्तिया वेणइमा कम्मया पारिणामिया / बुद्धो चउम्विहा बुत्ता, पंचमा नोवलब्भइ। भगवन ! वह पाभिनिबोधिक ज्ञान किस प्रकार का है ? उत्तर–अभिनिबोधिकज्ञान-मतिज्ञान दो प्रकार का है, जैसे—(१) श्रुतनिश्रित और (2) अश्रु तनिश्रित / प्रश्न:-अश्रु तनिधित कितने प्रकार का है ? उत्तर:--अश्रु तनिश्रित चार प्रकार का है / यथा (1) औत्पत्तिकी:-क्षयोपशम भाव के कारण, शास्त्र अभ्यास के विना ही सहसा जिसकी उत्पत्ति हो, उसे औत्पत्तिकी बुद्धि कहते हैं। (2) वैनयिको:-गुरु प्रादि की विनय-भक्ति से उत्पन्न बुद्धि वैनयिकी है। (3) कर्मजा...शिल्पादि के निरन्तर अभ्यास से उत्पन्न बुद्धि कर्मजा होती है / (4) पारिणामिकी-चिरकाल तक पूर्वापर पर्यालोचन से अथवा उम्र के परिपाक से जो बुद्धि उत्पन्न होती है उसे पारिणामिकी बुद्धि कहते हैं। ये चार प्रकार की बुद्धियाँ शास्त्रकारों ने वणित की हैं, पाँचवां भेद उपलब्ध नहीं होता। (1) औत्पत्तिकी बुद्धि का लक्षण ४८-पुवमदिट्ठ-मस्सुय-मवेइय, तक्खणविसुद्धगहियत्था / अवाय-फलजोगा, बुद्धी उत्पत्तिया नाम / / जिस बुद्धि के द्वारा पहले विना देखे और विना सुने ही पदार्थों के विशुद्ध अर्थ-अभिप्राय को तत्काल ही ग्रहण कर लिया जाता है और जिससे अव्याहत-फल-बाधारहित परिणाम का योग होता है, उसे प्रोत्पत्तिको बुद्धि कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org