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________________ मतिज्ञान] [71 ये दोनों ज्ञान एक जीव में एक साथ रहते हैं। दोनों ही ज्ञान परस्पर प्रतिबद्ध हैं फिर भी इनमें जो भेद है वह इस प्रकार है--मतिज्ञान वर्तमानकालिक वस्तु में प्रवृत्त होता है और श्रुतज्ञान त्रिकालविषयक होता है। मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान उसका कार्य है ! मतिज्ञान के होने पर ही श्रुतज्ञान हो सकता है / एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक द्रव्यश्रुत नहीं होता किन्तु भावश्रुत उनमें भी होता है। अब मति और श्रुत का विवेचन अन्य प्रकार से किया जाता है। मति और श्रुत के दो रूप * ४६–अविसेसिया मई मइनाणं च मइअन्नाणं च। विसेसिआ सम्मदिद्धिस्स मई मइनाणं, मिच्छदिद्धिस्स मई मइ-अन्नाणं / अविसेसि सुयं सुयनाणं च सुयअन्नाणं च / विसेसिअं सुयं सम्मदिहिस्स सुयं सुयनाणं, मिच्छदिहिस्स सुयं सुयअन्नाणं / ___ सामान्य रूप से मति, मतिज्ञान और मति-अज्ञान दोनों प्रकार का है। परन्तु विशेष रूप से वही मति सम्यकदृष्टि का मतिज्ञान है और मिथ्यादृष्टि की मति, मति-अज्ञान होता है / इसी प्रकार विशेषता रहित श्रुत, श्रुतज्ञान और श्रुत-अज्ञान उभय रूप है / विशेषता प्राप्त वही सम्यक्दृष्टि का श्रु त, श्रु तज्ञान और मिथ्यादृष्टि का श्रुत-अज्ञान होता है। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में सामान्य-विशेष, ज्ञान-अज्ञान और सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि के विषय में उल्लेख किया गया है। जैसे सामान्यतया 'मति' शब्द ज्ञान और अज्ञान दोनों अर्थों में प्रयुक्त होता है। जैसे किसी ने कहा-फल, द्रव्य अथवा मनुप्य / इन शब्दों में क्रमशः सभी प्रकार के फलों, द्रव्यों और मनुष्यों का अन्तर्भाव हो जाता है किन्तु अाम्रफल, जीवद्रव्य एवं मुनिवर कहने से उनकी विशेषता सिद्ध होती है। इसी प्रकार स्वामी विशेष की अपेक्षा किये विना मति शब्द ज्ञान और अज्ञान दोनों रूपों में प्रयुक्त किया जा सकता है / किन्तु जब हम विशेष रूप से विचार करते हैं तब सम्यग्दृष्टि आत्मा की ‘मति' मतिज्ञान और मिथ्यादष्टि प्रात्मा की 'मति' मति-अज्ञान कहलाती है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि स्याद्वाद दृष्टि द्वारा प्रमाण और नय की अपेक्षा से प्रत्येक पदार्थ के स्वरूप का निरीक्षण करके यथार्थ वस्तु को स्वीकार करता है तथा अयथार्थ का परित्याग करता है / सम्यग्दृष्टि की 'मति' आत्मोत्थान और परोपकार की अोर प्रवृत्त होती है / इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि की 'मति' अनन्तधर्मात्मक वस्तु में एक धर्म का अस्तित्व स्वीकार करती है, शेष का निषेध करती है। सामान्यतया 'श्रुत' भी ज्ञान-अज्ञान दोनों के लिए प्रयुक्त होता है। जब श्रुत का स्वामी सम्यग्दृष्टि होता है तो वह ज्ञान कहलाता है और यदि उसका स्वामी मिथ्यादृष्टि होता है तो वह अज्ञान कहलाता है / सम्यक् दृष्टि का ज्ञान आत्मोत्थान और दूसरों की उन्नति में प्रवृत्त होता है तथा मिथ्यादृष्टि का श्रु तज्ञान आत्मपतन के साथ पर की अवनति का कारण बनता है / सम्यकदृष्टि मिथ्याश्रु त को भी अपने श्रु तज्ञान के द्वारा सम्यक्थु त में परिवर्तित कर लेता है तथा मिथ्यादृष्टि सम्यक् त को भी मिथ्याश्र त में बदल लेता है। सारांश यह है कि ज्ञान का फल अज्ञान की निवृत्ति, आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति एवं निर्वाण पद की प्राप्ति करना है / सम्यग्दृष्टि जीव की बुद्धि और उसका शब्दज्ञान, दोनों ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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