________________ 70] [नन्दीसूत्र परोक्षज्ञान ४५--से कि तं परोक्खनाणं? परोक्खनाणं दुविहं पन्नत्तं, तं जहा-प्राभिणिबोहिअनाणपरोक्खं च, सुप्रनाणपरोक्खं च / जत्थ आभिणिबोहियनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुप्रनाणं तत्थ प्राभिणिबोहियनाणं / दोऽधि एयाई अण्णमण्णमणुगयाई, तहवि पुण इत्थ प्रायरिया नाणतं पण्णवयंति-अभिनिबुज्झइ ति प्राभिणिबोहियनाणं, सुणेइ त्ति सुझं, मइपुव्वं जेण सुग्रं, न मई सुअपुश्विना / प्रश्न-वह परोक्षज्ञान कितने प्रकार का है ? उत्तर–परोक्षज्ञान दो प्रकार का प्रतिपादित किया गया है / यथाग्राभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान / जहाँ प्राभिनिबोधिक ज्ञान है वहाँ पर श्रुतज्ञान भी होता है / जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ ग्राभिनिबोधिक ज्ञान भी होता है / ये दोनों ही अन्योन्य अनुगत-एक दुसरे के साथ रहने वाले हैं / परस्पर अनुगत होने पर भी प्राचार्य इन दोनों में परस्पर भेद प्रतिपादन करते हैं / जो सन्मुख पाए हुए पदार्थों को प्रमाणपूर्वक अभिगल करता है वह याभिनिबोधिक ज्ञान है, किन्तु जो सुना जाता है वह श्रुतज्ञान है, जो कि श्रवण का विषय है। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है किन्तु मतिज्ञान श्रुत-पूर्वक नहीं होता। विवेचन--जो सन्मुख आए हए पदार्थों को इन्द्रिय और मन के द्वारा जानता है, उस ज्ञानविशेष को प्राभिनिबोधिक ज्ञान कहते हैं / शब्द सुनकर वाच्य पदार्थ का जो ज्ञान होता है वह ज्ञानविशेष श्रुतज्ञान कहलाता है / इन दोनों का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। अतः दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते / जैसे सूर्य और प्रकाश, इनमें से एक जहाँ होगा, दूसरा भी अनिवार्य रूप से पाया जायेगा। "मइपुवं जेण सुयं, न मई सुम्रपब्विया / " श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है किन्तु श्रुतपूविका मति नहीं होती / जैसे वस्त्र में ताना बाना साथ ही होता है किन्तु फिर भी ताना पहले तन जाने के वाद ही बाना काम देता है / यद्यपि व्यवहार में यही कहा जाता है कि जहाँ ताना होता है वहाँ बाना रहता है और जहाँ बाना है वहाँ ताना भी है। ऐसा नहीं कहा जाता कि ताना पहले तना गोर बाना बाद में डाला गया। तात्पय यह है कि लब्धि रूप से दोनों सहचर हैं, उपयोग रूप से प्रथम मति और फिर श्रत का व्यापार होता है। शंका हो सकती है कि एकेन्द्रिय जीवों में मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान दोनों हैं, ये दोनों भी ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होते हैं, किन्तु इनका अस्तित्व कैसे माना जाए? उत्तर यह है कि पाहारादि संज्ञाएँ एकेन्द्रिय जीवों में भी होती हैं / वे बोध रूप होने से भावश्रुत उनमें भी सिद्ध होता है। इस विषय में आगे बताया जायगा / अभी तो यही जानना है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org