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________________ ज्ञान के पांच प्रकार] [66 विवेचन—प्रस्तुत गाथा में केवलज्ञान का उपसंहार किया गया है और उसका आंतरिक स्वरूप भी बताया है / पाँच विशेषणों के द्वारा सूत्रकार ने इसके स्वरूप को स्पष्ट किया है। वे निम्न हैं : (1) सव्वदन्व-परिणाम-भावविण्णत्तिकारणं-सर्वद्रव्यों को, उनकी पर्यायों को तथा प्रौदयिक आदि भावों को जानने का हेतु है। (2) अणंत-वह अनन्त है क्योंकि ज्ञेय अनन्त है तथा ज्ञान उससे भी महान है। (3) सासयं—सादि-अनन्त होने से केवलज्ञान शाश्वत है। (4) अप्पडिवाई--यह ज्ञान अप्रतिपाति अर्थात् कभी भी गिरनेवाला नहीं है / (5) एगविहं-सब प्रकार की तरतमता एवं विसदृशता से रहित तथा सदाकाल व सर्वदेश में एक समान प्रकाश करने वाला व उपर्युक्त पंच-विशेषणों सहित यह केवलज्ञान एक ही है / वाग्योग और श्रुत ४४.-केवलनाणेणऽत्थे, माउं जे तत्थ पण्णवणजोग्गे। ते भासइ तित्थयरो, वइजोगसुअं हवइ सेसं / से तं केवल नाणं, से तं नोइन्दियपच्चक्खं / केवलज्ञान के द्वारा सब पदार्थों को जानकर उनमें जो पदार्थ वर्णन करने योग्य होते हैं, अर्थात् जिन्हें वाणी द्वारा कहा जा सकता है, उन्हें तीर्थंकर देव अपने प्रवचनों में प्रतिपादन करते हैं / वह उनका वचनयोग होता है अर्थात् वह अप्रधान द्रव्यश्रुत है। यहाँ 'शेष' का अर्थ 'अप्रधान' है / ___इस प्रकार केवलज्ञान का विषय सम्पूर्ण हुआ और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष का प्रकरण भी समाप्त हुआ। विवेचन-स्पष्ट है कि तीर्थकर भगवान् जितना केवलज्ञान से जानते हैं, उसमें से जितना कथनीय है उसी का प्रतिपादन करते हैं। सभी पदार्थों का कहना उनकी शक्ति से भी परे है, क्योंकि पदार्थ अनन्तानन्त हैं और आयुष्य परिमित समय का होता है / इसके अतिरिक्त बहुत-से सूक्ष्म अर्थ ऐसे हैं जो वचन के अगोचर हैं / इसलिए प्रत्यक्ष किये हुए पदार्थ का अनन्तवां भाग ही वे कह सकते हैं। केवलज्ञानी जो प्रवचन करते हैं वह उनका श्रुतज्ञान नहीं, अपितु भाषापर्याप्ति नाम कर्मोदय से करते हैं / उनका वह प्रवचन वाग्योग-द्रव्यश्रुत कहलाता है क्योंकि सुनने वालों के लिए वह द्रव्यश्रुत, भावश्रुत का कारण बन जाता है। इससे सिद्ध होता है कि तीर्थकर भगवान् का वचनयोग द्रव्यश्रुत है, भावश्रुत नहीं। वह केवलज्ञान-पूर्वक होता है / वर्तमान काल में जो आगम हैं, वे भावश्रुतपूर्वक हैं, क्योंकि वे गणधरों के द्वारा सूत्रबद्ध किये गए हैं / गणधरों को जो श्रुतज्ञान हुअा, वह भगवान् के वचनयोग रूप द्रव्यश्रुत से हुआ है। इस प्रकार सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष एवं नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष ज्ञान का प्रकरण समाप्त हुआ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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