________________ 68] [नन्दीसूत्र केवलज्ञान कहलाता है तथा सामान्य की ओर प्रवहमान होने पर केवलदर्शन / इस दृष्टि से चेतना का प्रवाह एक समय में एक ओर ही हो सकता है, दोनों ओर नहीं / (2) जैसे देशज्ञान के विलय से केवलज्ञान होता है वैसे ही देशदर्शन के विलय से केवलदर्शन ! ज्ञान की पूर्णता को केवलज्ञान और दर्शन की पूर्णता को केवलदर्शन कहते हैं। इससे सिद्ध होता है कि ज्ञान-दर्शन दोनों का स्वरूप पृथक्-पृथक् है और दोनों को एक मानना ठीक नहीं। (3) छमस्थ काल में जब ज्ञान और दर्शनरूप दो विभिन्न उपयोग पाये जाते हैं तब उनकी पूर्ण अवस्था में वे एक कैसे हो सकते हैं ? अवधिज्ञान एवं अवधिदर्शन को जब एक नहीं माना जाता तो फिर केवलज्ञान और केवलदर्शन एक कैसे माने जा सकते हैं ? (4) नन्दीसूत्र में प्रमुख रूप से पाँच ज्ञानों का ही वर्णन है, दर्शनों का नहीं। इससे दोनों की एकता सिद्ध नहीं होती। इस बात की पुष्टि सोमिल ब्राह्मण के प्रसंग से होती है। सोमिल के प्रश्नों का उत्तर देते हुए भगवान् महावीर ने कहा है-- "हे सोमिल ! मैं ज्ञान और दर्शन को अपेक्षा द्विविध हूँ।" (भगवती सूत्र० श० 18, उ० 10) भगवान के इस कथन से सिद्ध होता है कि दर्शन भी ज्ञान की तरह स्वतन्त्र सत्ता रखता है। नन्दीसत्र में भी सम्यक् श्रुत के अंतर्गत "उप्पन्ननाण-दसणधरेहि" कहा है। इसमें ज्ञान के अतिरिक्त दर्शन पद भी जुड़ा हुआ है, जिससे ज्ञात होता है कि केवली में दर्शन का अस्तित्व अलग होता है। नयों की दृष्टि से उक्त विषय का समन्वय उपाध्याय यशोविजय ने तीनों ही मान्यताओं का समन्वय नयों की शैली से किया है, यथाः (1) ऋजु सूत्र नय के दृष्टिकोण से एकान्तर-उपयोगवाद उपयुक्त है। (2) व्यवहारनय के दृष्टिकोण से युगपद्-उपयोगवाद सत्य प्रतीत होता है तथा:(३) संग्रहनय से अभेद-उपयोगवाद समुचित ज्ञात होता है। उपर्युक्त केवलज्ञान और केवलदर्शन के विषय में तीनों मतों को जानने के लिए नन्दीसूत्र की चूणि, मलयगिरिकृत वृत्ति तथा हरिभद्रकृत वृत्ति देखना चाहिए / जिनभद्रगणी कृत विशेषावश्यक भाष्य में भी यह विषय विशद रूप से वणित है। ज्ञातव्य है कि दिगम्बरपरम्परा में युगपद्-उपयोगवाद का एक ही पक्ष मान्य है। वह दोनों का उपयोग एक ही साथ मानती है। केवलज्ञान का उपसंहार ४३--ग्रह सव्वदव्व-परिणाम-भाव-विष्णत्तिकारणमणतं / सासयमप्पडिवाई, एगविहं केवलं नाणं // केवलज्ञान सम्पूर्ण द्रव्यों को, उत्पाद आदि परिणामों को तथा भाव-सत्ता को अथवा वर्ण, गन्ध, रस आदि को जानने का कारण है। वह अनन्त, शाश्वत तथा अप्रतिपाति है / ऐसा यह केवलज्ञान एक प्रकार का ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org