________________ उत्तराध्ययन की टीकाए :शिष्यहितावृत्ति (पाइअटीका) : नियुक्ति एवं भाप्य प्राकृत भाषा में थे / चणि में प्रधान रूप से प्राकृत भाषा का और गौण रूप से मस्कृत भाषा का प्रयोग हया / उसके बाद संस्कृत भाषा में टीकाएं लिखी गई। टीकाएँ संक्षिप्त और विस्तत दोना प्रकार की मिलती हैं। उत्तराध्ययन के टीकाकारों में सर्वप्रथम नाम वादीवंताल शान्तिसूरि का है। महाकवि धनपाल के प्राग्रह से शान्तिसूरि ने चौरासी वादियों को सभा में पराजित किया जिमसे राजा भोज ने उन्हें 'वादिबैताल' की उपाधि प्रदान की। उन्होंने महाकवि धनपाल को तिलकमंजरी का सशोधन किया था। उत्तराध्ययन की टीका का नाम शिष्यहितावत्ति है। इस टीका में प्राकृत की कथाओं व उद्धरणों की बहुलता होने के कारण इसका दूसरा नाम पाइअटीका भी है। यह टीका मूलमूत्र और नियुक्ति इन दोनों पर है। टीका की भरपा भरस और मधुर है। विषय की पुष्टि के लिए भाष्य-गाथाएं भी दी गई हैं और साथ ही पाठान्तर भी। प्रथम अध्ययन की व्याख्या में नय का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है / नय की संख्या पर चिन्तन करते हुए लिखा है-पूर्वविदों ने सकलनयस ग्राही सात सौ नयों का विधान किया है। उस समय "सप्तशत शतार नयचक्र" विद्यमान था। तत्संग्राही विधि आदि का निरूपण करने वाला बारह प्रकार के नयों का "द्वादणारनय चक्र'' भी विद्यमान था और वह वर्तमान में भी उपलब्ध है। द्वितीय अध्ययन में वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद ने ईश्वर की जो कल्पना की और वेदों को अपौरुण्य कहा, उस कल्पना को मिथ्या बताकर ताकिक दृष्टि से उसका समाधान किया / अचेल परीपह पर विवेचन करते हा लिखा-वस्त्र धर्ममाधना में एकान्त रूप से बाधक नहीं है। धर्म का मूल रूप से वाधक तत्त्व कषाय है / कषाय युक्त धारण किया गया वस्त्र पात्रादि की तरह बाधक है / जो धार्मिक माधना के लिए वस्त्रों को धारण करता है, वह साधक है। चौथे अध्ययन में जीवप्रकरण पर विचार करते हए जीव-भावकरण के श्रतकरण पीर नोध तकरण ये दो भेद किये गये हैं। पुनः श्र तकरण के वद्ध और अबद्ध ये दो भेद है / बद्ध के निशीथ और अनिशीथ ये दो भेद हैं / उनके भी लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद किये गये हैं / निशीथ सूत्र आदि लोकोत्तर निशीथ है और बदायक प्रादि लौकिक निशीथ हैं। आचासंग प्रादि लोकोत्तर अनिशीथ श्रत है। पुराण आदि लौकिक निशीथ धत हैं / लौकिक और लोकोत्तर भेद से अबद्ध श्र त के भी दो प्रकार हैं / अबद्ध श्रत के लिए अनेक वा दी गई हैं। प्रस्तुत टीका में विशेषावश्यक भाष्य, उत्तराव्ययनचूणि, पावश्यकचर्णि, सप्तशतारनयचक्र, निशीथ, वहदारण्यक, उत्तराध्यनभाय, स्त्री निर्वाणसूत्र आदि ग्रन्थों के निर्देश हैं। साथ हो जिनभद्र, भर्तहरि, वाचक सिद्धसेन, वाचक अश्वसेन, वात्स्यायल, शिव शर्मन, हारिल्लवाचक, गंधहस्तिन, जिनेन्द्रबुद्धि, प्रभति व्यक्तियों के नाम भी पाये हैं। वादीवैताल शान्तिस्रि का समय विक्रम की ग्यारहवीं शती है। सुखबोधा वृत्ति उत्तराध्ययन पर दुसरी टीका प्राचार्य नेमिचन्द्र की सूख वोधावृत्ति है। नेमिचन्द्र का अपर नाम देवेन्द्र गणि भी था। प्रस्तुत टीका में उन्होंने अनेक प्राकृतिक प्रास्यान भी उकित किये हैं। उनकी शैली पर आचार्य हरिभद्र और वादीवैताल शान्तिसूरि का अधिक प्रभाव है। शैली की सरलता व सरसता के कारण उसका नाम सुख बोधा रखा गया है / वृत्ति में सर्वप्रथम तीर्थकर, सिद्ध, साध, श्रत, देवता को नमस्कार किया गया है। [ 92 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org