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________________ वृत्तिकार ने वृत्तिनिर्माण का लक्ष्य स्पष्ट करते हुए लिखा है कि शान्त्याचार्य की वृत्ति गम्भीर और बहुत अर्थ वाली है। ग्रन्थ के अन्त में स्वयं को गच्छ, गुरुभ्राता, वत्तिरचना के स्थान, समय प्रादि का निर्देश किया है। प्राचार्य नेमिचन्द्र बहदगच्छीय उद्योतनाचार्य के प्रशिष्य उपाध्याय अाम्रदेव के शिष्य थे। उनके गुरुभ्राता का नाम मुनिचन्द्र सूरि था, जिनकी प्रवल प्रेरणा से ही उन्होंने बारह हजार श्लोक प्रमाण इस वृत्ति को रचना की। विक्रमसंवत् ग्यारह सौ उनतीस में वृत्ति अहिलपाटन में पूर्ण हुई / 324 उसके पश्चात् उत्तराध्ययन पर अन्य अनेक विज्ञ मुनि, तथा अन्य अनेक विभिन्न सन्तों व प्राचार्यों ने वृत्तियाँ लिखी हैं / हम यहाँ संक्षेप में सूचन कर रहे हैं / विनयहंस ने उत्तराध्ययन पर एक वत्ति का निर्माण किया। विनयहस कहाँ के थे ? यह अन्वेषणीय है। संवत् 1552 में कीर्तिवल्लभ ने, संवत 1554 म उपाध्याय कमलसंयत ने, संवत् 1550 में तपोरत्न वाचक ने, गुणशेखर, लक्ष्मीवल्लभ ने, संवत 1689 में भावविजय ने, हर्षनन्द गणी ने, संवत् 1750 में उपाध्याय धर्ममन्दिर, सवत् 1546 में उदयसागर, मुनिचन्द्र सूरि, ज्ञानशील गणी, अजितचन्द्र सूरि, राजशील, उदयविजय, मेघराज वाचक, नगरसी गणी, अजितदेव सूरि, माणक्य शेखर, ज्ञानसागर अादि अनेक मनीषियों ने उत्तराध्ययन पर संस्कृत भाषा में टीकाएं लिखीं। उनमें से कितनीक टीकाएँ विस्तृत हैं तो कितनी ही संक्षिप्त है / कितनी ही टीकाओं में विषय को सरल व सुबोध बनाने के लिए प्रसंगानुसार कथाओं का भी उपयोग किया गया है। लोकभाषाओं में अनुवाद और व्याख्याएँ ___संस्कृत प्राकृत भाषाओं की टीकाओं के पश्चात विविध लोकभाषाओं में संक्षिप्त टीकानों का युग प्रारम्भ हुमा / संस्कृत भाषा की टीकानों में विषय को सरल व सुबोध बनाने का प्रयास हया था, साथ ही उन टीकाओं में जीव, जगत, आत्मा, परमात्मा, द्रव्य आदि की दार्शनिक गम्भीर चर्चाएं होने के कारण जन-सामान्य के लिए उन्हें समझना बहुत ही कठिन था / अत: लोकभाषाओं में, सरल और सूबोध शैली में बालावबोध की रचनाएँ प्रारम्भ हई। बालावबोध के रचयिताओं में पार्श्वचन्द्र गणी और प्राचार्य मूनि धर्मसिंहजी का नाम आदर के साथ लिया जा सकता है। बालावबोध के बाद आगमों के अनूवाद अंग्रेजी, गुजराती और हिन्दी इन तीन भाषाओं में मुख्य रूप से हुए हैं। जर्मन विद्वान डॉ० हरमन जैकोबी ने चार अागमों का अंग्रेजी में अनुवाद किया। उनमें उत्तराध्ययन भी एक है। वह अनुवाद सन् 1895 में ऑक्सफॉर्ड से प्रकाशित हया। उसके पश्चात वही अनुवाद सन् 1964 में मोतीलाल बनारसीदास (देहली) ने प्रकाशित किया / अंग्रेजी प्रस्तावना के साथ उत्तराध्ययन जाले चार पेन्टियर उप्पसाला ने मन् 1922 में प्रकाशित किया। सन 1954 में पार, डी. वाडेकर और वैद्य पूना द्वारा मूल ग्रन्थ प्रकाशित हुमा / सन् 1938 में गोपालदास जीवाभाई पटेल ने गुजराती छायानुवाद, सन् 1934 में हीरालाल हमराज जामनगर वालों ने अपूर्ण गुजराती अनुवाद प्रकाशित किया / सन् 1952 में गुजरात विधासभा---- 324. विश्रुतस्य महीपीठे, बहद्गच्छस्य भण्डनम् / श्रीमान बिहारकप्रप्ठः, सूरिद्योतनाभिधः / / 9 // शिष्यस्तस्याऽऽम्रदेवोऽभूदुपाध्यायः सतां मतः / यत्रैकान्तगुणापूर्णे, दोषैले भे पदं न तु // 10 // श्रीनेमिचन्द्रसूरिझद्ध तवान् , वृत्तिका तद्विनेयः / गुरुसोदर्यश्रीमन्मुनिचन्द्राचार्यवचनेन // 11 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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