SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "राई मरिममित्ताणि परछिहाणि पाससि / अप्पणो बिल्लमित्ताणि पासंतोऽविन पामसि / / " "तु गाई के बराबर दमरों के दोषों को तो देखता है पर वित्र जितने बड़े स्वयं के दोषों को देखकर भी नही देता है।" "मुहिनो हु जणो न बुज्झई ----मुखी मनुष्य प्रायः जल्दी नहीं जाग पाता / "भावमि उ पबज्जा प्रारम्भपरिगहच्चाप्रो''हमा और परिग्रह का त्याग ही वस्तुत: भावप्रव्रज्या है। उत्तराध्ययन-भाष्य नियुक्तियों की व्याख्या शैली बहुत ही गूढ और संक्षिप्त थी। नियुक्तियों का लक्ष्य केवल पारिभाषिक गन्दों को व्याख्या करना था / नियुक्तियों के गुरु गम्भीर रहस्यों को प्रकट करने के लिए भाष्यों का निर्माण हुआ। भाप्य भी प्राकृत भाषा में ही पद्य रूप में लिखे गये / भाष्यों में अनेक स्थलों पर मागधी और सौरसेनी के प्रयोग भी नष्टिगोचर होते हैं। उनमें मुख्य छन्द प्रार्या है। उद्यराध्ययनभाष्य स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में उपलब्ध नहीं है / गान्तिमुरिजी की प्राकृत टीका में भाष्य की गाथाएँ मिलती हैं / कूल गाथाएँ 45 हैं। ऐसा ज्ञात होता है कि अन्य भाष्यों की गाथाओं के सदृश इम भाष्य की गाथाएँ भी नियुक्ति के पास मिल गई हैं। प्रस्तुत भाष्य में वोटिक की उत्पत्ति, पुलाक, बवण, कुशीन, निर्ग्रन्थ और स्नातक ग्रादि निर्ग्रन्थों के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। उत्तराध्ययनणि भाष्य के पश्चात् चणि साहित्य का निर्माण हुअा। नियुक्ति और भाष्य पद्यात्मक है तो चणि गद्यात्मक है / चणि में प्राकृत और संस्कृत मिश्रित भाषा का प्रयोग हुअा है। उत्तराध्ययन तूगि उत्तराध्ययन नियुक्ति के आधार पर लिखी गई है / इसमें संयोग, पुदगल बंध, संस्थान, विनय, क्रोधावारण, अनुशासन, परीपह, धर्मविघ्न, मरण, निम्रन्थ-पंचक, भयसप्तक, ज्ञान-क्रिया एकान्त, प्रति विषयों पर उदाहरण सहित प्रकाश डाला है / चणिकार ने विषयों को स्पष्ट करने के लिए प्राचीन ग्रन्थों के उदाहरण भी दिए हैं। उन्होंने अपना परिचय देने हा स्वयं को वाणिज्यकूलीन कोटिकगणीय, वनशाखी, गोपालगणी महतर का अपने पापको शिष्य कहा है। 323 दणकालिक और उतराव्ययन चूणि ये दोनों एक ही प्राचार्य को कृतियाँ हैं, क्योंकि स्वयं प्राचार्य ने चणि में लिखा है - मैं प्रकीर्ण तप का वर्णन दशकालिक चणि में कर चका है।' इममे स्पष्ट है कि दशवकालिक चणि के पश्चात ही उन गध्ययन चणि की रचना हई है। 323. "वाणिजबलमभूयो, कोडियगणियो उ वयरसाहीतो / गोवालियमहत्तरो, विक्रवाओ आसि लोगंमि / / 1 / / सममयपरसमयविऊ, ओयस्सी दित्तिमं सुगंभीरो। मीसगणसपरिवडो, वखाणरतिप्पियो ग्रासी // 2 // नेमि सीमेण इम, उत्तरज्झयणाण पिणखंड तु / इयं गाणग्गहत्थं, सीमाण मंदबद्धीणं / / 3 / / जं पत्थं उस्मुत्त', अयागमाणेण विरतितं होज्जा / तं अणुप्रोगधरा मे, अणुचिोर्ड समारंतु // 4 // -उत्तराञ्चयन चुणि, पृष्ठ 283. [ 91] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy