________________ में भिन्नता आती है। कर्मों की मूल पाठ प्रकृतियाँ हैं। उन प्रकृतियों की अनेक उत्तर प्रकृतियाँ हैं। प्रत्येक कर्म की पृथक-पृथक स्थिति हैं। स्थितिकाल पूर्ण होने पर वे कर्म नष्ट हो जाते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में कर्मों की प्रकृतियों का और उनके अवान्तर भेदों का निरूपण हया है। कर्म के सम्बन्ध में हमने विपाक सूत्र की प्रस्तावना में विस्तार से लिखा है, अत: जिज्ञासु इस सम्बन्ध में उसे देखने का कस्ट करें। लेश्या: एक विश्लेषण-.-. चौतीसवें अध्ययन में लेश्याओं का निरूपण है। इसीलिए इसका नाम "लेश्या-अध्ययन' है। उत्तराध्ययन नियुक्ति में इस अध्ययन का विषय कर्म-लेश्या कहा है।२८६ कर्मबन्ध के हेतु रागादि भावकर्म लेश्या है / जैन दर्शन के कर्मसिद्धान्त को समझने में लेश्या का महत्त्वपूर्ण स्थान है। लेश्या एक प्रकार का पौद्ल क पर्यावरण है / जीव से पुदगल और पुदगल से जीव प्रभावित होते हैं। जीव को प्रभावित करने वाले पुदगलों के अनेक समूह हैं / उनमें से एक समूह का नाम 'लेश्या' है / वादिवेताल शान्तिसूरि ने लेश्या का अर्थ आणविक प्राभा, कान्ति, प्रभा और छाया किया है। प्राचार्य शिवार्य ने लिखा है.. ..लेश्या छाया-पुदगलों से प्रभावित होने वाले जोव के परिणाम हैं / 2deg प्राचीन जैन-साहित्य में शरीर के वर्ण, आणविक प्राभा, और उनसे प्रभावित होने वाले वित्रार इन तीनों अर्थों में लेश्या पर चिन्तन किया है। नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती ने शरीर का वर्ण और आणविक आभा को द्रव्य-लेश्या माना है। प्राचार्य भद्रबाह का भी यही अभिमत हैं / 212 उन्होंने विचार को भाव-लेश्या कहा है। द्रव्य-लेश्या पुदगल है। इसलिए उसे वैज्ञानिक साधनों के द्वारा भी जाना जा सकता है / द्रव्य-लेश्या के पुद्गलों पर वर्ण का प्रभाव अधिक होता है। जिसके सहयोग से आत्मा कम में लिप्त होता है वह 'लेश्या है। 26 3 दिगम्बर प्राचार्य वीरसेन के शब्दों में कहा जाए तो प्रात्मा और कर्म का सम्बन्ध कराने वाली प्रवृत्ति लेण्या है।६४ मिथ्यात्व, अवत, कषाय, प्रमाद और योग के द्वारा कमों का सम्बन्ध अात्मा से होता है। प्राचार्य पूज्यपाद ने कषायों के उदय से अनुरंजित मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को लेश्या कहा है।२४५ प्राचार्य अकलंक ने भी उसी परिभाषा का अनुसरण किया है / 266 संक्षेप में कहा जाए तो कषाय और योग लेश्या नहीं है, पर वे उसके कारण हैं / इसलिए लेण्या का अन्तर्भाव न योग में किया जा सकता है और न कषाय में / कषाय और योग के संयोग से एक तीमरी अवस्था उत्पन्न होती है। जैसे—दही और शक्कर के संयोग से श्रीखण्ड तयार होता है। कितने ही ग्राचार्यों का 288. “अहिगारो कम्मलेसाए" -उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा-५४१ 289. लेशति श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति लेश्या-अतीव चक्ष राक्षेपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया' / -उत्तराध्ययन बृहवत्ति, पत्र 650 290. मूलाराधना 7 / 1907 291. (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 494 (ख) उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा-५३९ 292. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा 540 293. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 489 294. षट्खण्डागम, धवलावृत्ति 712 / 1, सूत्र 3, पृष्ठ 7 295. तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि / 296. तत्त्वार्थ राजवातिक 268, पृष्ठ 109 [ 84] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org