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________________ अभिमत है कि लेश्या में कषाय की प्रधानता नहीं होती किन्तु योग को प्रधानता होती है। केवलज्ञानी में कपाय का पूर्ण प्रभाव है पर योग की सत्ता रहती है, इसलिए उसमें अक्ल लेण्या है। उत्तराध्ययन के टीकाकार शान्तिसूरि का मन्तव्य है कि द्रव्यलेश्या का निर्माण कर्मवर्गणा से होता है।२७ यह द्रव्यलेश्या कर्मरूप है। तथापि यह पाठ कमों से पृथक है, जैसे--कामण शरीर / यदि लेश्या को कर्मवर्गणा-निष्पन्न माना जाए तो वह कर्म स्थिति-विधायक नहीं बन सकती। कर्मलेश्या का सम्बन्ध नामकर्म के साथ है। उसका सम्बन्ध शरीर-रचना सम्बन्धी पुद्गलों से है। उसकी एक प्रकृति शरीरनामकर्म है। शरीरनामकर्म के एक प्रकार के पुद्गलों का समूह कमलेश्या है 28 द्वितीय मान्यता की दृष्टि से लेश्या द्रव्य कर्म निस्यन्द है। निस्यन्द का अर्थ बहते हा कर्म प्रवाह से है। चौदहवें गुणस्थान में कर्म की सत्ता है, प्रवाह है पर वहां लेश्या नहीं है। वहाँ पर नये कर्मों का प्रागमन नहीं होता / कपाय और योग से कर्मबन्धन होता है / कपाय होने पर चारों प्रकार के वध होते हैं। प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध का सम्बन्ध योग से है तथा स्थितिवन्ध और अनुभागवन्ध का सम्बन्ध कपाय से। केवल योग में स्थिति और अनूभाग बन्ध नहीं होता, जैसे तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरिहन्तों के ऐपिथिक बन्ध होता है, किन्तु स्थिति, और अनुभाग बन्ध नहीं होता। जो दो समय का बाल बताया गया है वह काल वस्तुतः कर्म पुदगल ग्रहण करने का और उत्सर्ग का काल है / वह स्थिति और अनुभाग का काल नहीं है। ततीय अभिमतानुसार लेश्याद्रव्य योगवगंणा के अन्तर्गत स्वतन्त्र द्रव्य हैं। विना योग के लेण्या नहीं होती / लेश्या और योग में परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। प्रश्न उठता है.--क्या लेश्या को योगान्तर्गत मानना . चाहिए? या योगनिमित्त द्रव्यकर्म रूप ? यदि वह लेश्या द्रव्यकर्म रूप है तो घातीकर्मद्रव्य रूप है अथवा अघातिकर्मद्रव्य रूप है ? लेश्या घातीकर्मद्रव्य रूप नहीं है, क्योंकि घातिकर्म नष्ट हो जाने पर भी लेश्या रहती है। यदि लेश्या को अघातिकर्मद्रव्य स्वरूप माने तो चौदहवें मुणस्थान में अघाति कर्म विद्यमान रहते हैं पर वहाँ लेश्या का अभाव है। इसलिए योग-द्रव्य के अन्तर्गत ही द्रव्यस्वरूप लेश्या मानना चाहिए। लेश्या से कषायों में अभिवद्धि होती है क्योंकि योगद्रव्य में कषाय-अभिवद्धि करने की शक्ति है / द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अपना कर्तृत्व दिखाते हैं। जिस व्यक्ति को पित्त-विकार हो उसका क्रोध सहज रूप से बढ़ जाता है। ब्राह्मी वनस्पति का सेवन ज्ञानावरण कर्म को कम करने में सहायक है। मदिरापान करने से ज्ञानावरण का उदय होता है। दही का उपयोग करने से निद्रा में अभिवृद्धि होती है। निद्रा दर्शनावरण कर्म का औदयिक फल है / अतः स्पष्ट है कषायोदय से अनुरंजित योगप्रवत्ति ही [लेश्या स्थितिपाक में सहायक होती है। गोम्मटसार में प्राचार्य नेमिचन्द्र ने योगपरिणाम लेश्या का वर्णन किया है। 300 प्राचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में 301 और गोम्मटसार के कर्मकाण्ड खण्ड में 302 कपायोदय से अनुरंजित योगप्रवत्ति को लेश्या कहा 297. "कर्मद्रव्यलेश्या इति सामान्याऽभिधानेऽपि शरीरनामकर्मद्रव्याण्येव कर्मद्रव्यलेश्या / कार्मणशरीरक्त पथगेव कर्माप्टकात कर्मवर्गणानिध्पन्नानि कर्मलेश्याद्रव्याणीति तन्वं पूनः / " - उत्तरा. अ.३४ टी., पृष्ठ 650 298. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन-३४ टीका, पृष्ठ 650 शान्तिसूरि 229. प्रज्ञापना 17, टीका, पृष्ठ 330 300. गोम्मटसार, जीवकाण्ड 531 301. "भावलेश्या कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिरिति कृत्वा प्रौदयिकीत्युच्यते" / —सर्वार्थसिद्धि अ. 2, सू. 2 302. 'जोगग उत्ती लेस्सा कसायउदयाणरंजिया होदि / तते दोणं कज्ज बन्धन उत्थं समुद्दिठं / / -जीवकाण्ड, '486 [85 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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