________________ कहते हैं। कितने ही दर्शन कर्म का सामान्य रूप से केवल निर्देश करते हैं तो कितने ही दर्शन कर्म के विभिन्न पहलुओं पर चिन्तन करते हैं / न्यायदर्शन को दृष्टि से अदष्ट प्रात्मा का गुण है / श्रेष्ठ और निकृष्ट कर्मों का प्रात्मा पर संस्कार पड़ता है। वह अदष्ट है। जहाँ तक अदृष्ट का फल सम्प्राप्त नहीं होता तब तक वह आत्मा के साथ रहता है / इसका फल ईश्वर के द्वारा मिलता है / 284 यदि ईश्वर कर्मफल की व्यवस्था न करे तो कर्म पूर्णा से निष्फल हो जाएं। सांख्यदर्शन ने कर्म को प्रकृति का विकार माना है। उनका अभिमत है हम जो श्रेष्ठ या कनिष्ठ प्रवृत्तियाँ करते हैं, उनका संस्कार प्रकृति पर पड़ता है और उन प्रकृति के संस्कारों से हो कर्मों के फल प्राप्त होते हैं। बौद्धों ने चित्तगत वासना को कर्म कहा है। यही कार्यकारण भाव के रूप में सुखदुख का हेतु है / जैनदर्शन ने कर्म को स्वतंत्र पुदगल तत्त्व माना है। कर्म अनन्त पौद्गलिक परमाणुओं के स्कन्ध हैं। मम्पूर्ण लोक. में व्याप्त हैं। जीवात्मा की जो श्रेष्ठ या कनिष्ठ प्रवृत्तियाँ होती हैं, उनके कारण ये प्रान्मा के साथ बंध जाते हैं। यह उनको बंध अवस्था कहलाती है / बंधने के पश्चात् उनका परिपाक होता है। परिपाक के रूप में उनसे सुख, दुःख के रूप में या आवरण के रूप में फल प्राप्त होता है। अन्य दार्शनिकों ने कर्मो की क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध ये तीन अवस्थाएं बताई हैं। वे जैनदर्शन के बंध, सना और उदय के अर्थ को ही अभिव्यक्त करती हैं। कर्म के कारण ही जगत को विभक्ति८६ विचित्रता 87 और ममान माधन होने पर भी फल-प्राप्ति में अन्तर रहता है / बन्ध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और द्रदेश, ये चार भेद हैं / कर्म का नियत समय से पूर्व फल प्राप्त होना 'उदीरणा' है, कर्म की स्थिति और विपाक की वद्धि होना 'उदवर्तन' है, कर्म की स्थिति और विपाक में कमी होना 'अपवर्तन' है और कर्म की सजातीय प्रकृतियों का एक दूसरे के रूप में परिवर्तन होना संक्रमण' है। कर्म का फलदान 'उदय' है / कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी उदय में ग्राने के लिए उन्हें अधम बना देना 'उपशम' है। दूसरे शब्दों में कहें तो कर्म की वह अवस्था जिसमें उदय और उदीरणा सम्भव नहीं है वह 'उपशम' है। जिसमें कर्मों का उदय और संक्रमण नहीं हो सके किन्तु उद्वर्तन और अपवर्तन की सम्भावना हो, वह 'निधत्ति' है। जिसमें उवर्तन, अपवर्तन, संक्रमण एवं उदीरणा इन चारो अवस्थाओं का अभाव हो, वह 'निकाचित' अवस्था है। कर्म बन्धने के पश्चात् अमुक समय तक फल न देने की अवस्था का नाम 'अवाधाकाल' है। जिस कर्म की स्थिति जितने मागरोपम की है, उतने ही मौ वर्ष का उसका अबाधाकाल होता है। कर्मों की इन प्रक्रियात्रों का जैसा विश्लेषण जैन माहित्य में हुआ है, वैमा विश्लेषण अन्य माहित्य में नहीं हया। योगदर्शन में नियतविपाकी, अनियतविपाकी और आवायगमन के रूप में कम की त्रिविध अवस्था का निरूपण है / जो नियत समय पर अपना फल देकर नष्ट हो जाता है, वह 'नियनविपाकी' है। जो कर्म बिना फल दिये ही प्रात्मा से पृथक हो जाता है, वह अनियतविपाको' है। एक कर्म का दुमरे में मिल जाना 'ग्राबायगमन' है। जैनदर्शन की कर्म-व्याख्या विलक्षण है। उसकी दृष्टि से कर्म पौद्गलिक हैं / जब जीव शुभ अथवा अशुभ प्रवृत्ति में प्रवन होता है तब वह अपनी प्रवृत्ति से उन पुद्गलों को आकर्षित करता है। वे प्राकृप्ट पुद्गल प्रात्मा के मनिकट अपने विशिष्ट रूप और शक्ति का निर्माण करते हैं। वे 'कर्म' कहलाते हैं। यद्यपि कर्मवर्गणा के पुद्गलों में कोई स्वभाव भिन्नता नहीं होती पर जीव के भिन्न भिन्न अध्यवसायों के कारण कर्मों की प्रकृति और स्थिति in न्यायसूत्र-४।१ -~-मांख्यसूत्र, 5/25 284. "ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफलस्य दर्शनात" 5. 'अन्तर:करणधर्मत्वं धर्मादीनाम' 286. भगवती–१२॥१२०. 287. 'कर्म लोकवैचिव्यं चेतना मानसं च तत् / ' --अभिधर्मकोश-४११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org