________________ आधिभौतिक, सभी तपस्या की भावना से अनप्राणित हैं........उसके वेद, वेदांग, दर्शन, पुराण, धर्मशास्त्र आदि सभी विद्या के क्षेत्र जीवन की साधना रूप तपस्या के एकनिष्ठ उपासक हैं / "16. जैन तीर्थकरी के जीवन का अध्ययन करने से स्पष्ट है-वे तप साधना के महान् पुरस्कर्ता थे / श्रमण भगवान् महावीर साधन-काल के साढ़े बारह वर्ष में लगभग ग्यारह वर्ष निराहार रहे / उनका सम्पूर्ण साधनाकाल अात्मचिन्तन, ध्यान और कायोत्सर्ग में व्यतीत हुअा। उनका जीवन तप की जीती-जागती प्रेरणा है / जैन साधना का लक्ष्य शुद्ध प्रात्मतत्त्व की उपलब्धि है। प्रात्मा का शुद्धीकरण है / तप का प्रयोजन है--प्रयासपूर्वक कर्म-पुद्गलों को प्रात्मा से अलग-थलग कर विशुद्ध प्रात्मस्वरूप को प्रकट करना / इसलिए भगवान् महावीर ने कहा...तप प्रात्मा के परिशोधन की प्रक्रिया है२६२, ग्राबद्ध कर्मों का क्षय करने की पद्धति है। 263 तप से पाप-कर्मों को नष्ट किया जाता है / तप कर्म-निर्जरण का मुख्य साधन है। किन्तु तप केवल कायक्लेश या उपवास ही नहीं, स्वाध्याय, ध्यान, विनय आदि सभी तप के विभाग हैं। जैनदृष्टि से तप के बाह्य और ग्राभ्यन्तर दो प्रकार हैं / बाह्य तप के अनशन, अवमोदरिका, भिक्षाचर्या. रमपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता, ये छह प्रकार हैं। इनके धारण आचरण से देहाध्यास नष्ट होता है / देह की आसक्ति साधना का महान् विघ्न है। देहासक्ति से विलासिता और प्रमाद समुत्पन्न होता है, इसलिए जैन श्रमण का विशेषण 'दोसट्ठ-चत्तदेहे" दिया गया है / बाह्य तप स्थूल है, वह बाहर से दिखलाई देता है जबकि ग्राभ्यन्तर तप को सामान्य जनता तप के रूप में नहीं जानती। तथापि उसमें तप का महत्त्वपूर्ण एवं उच्च पक्ष निहित है। उसके भी प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग ये छह प्रकार हैं जो उत्तरोत्तर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होते चले गये हैं / वैदिक परम्परा में भी तप की महत्ता रही है। वैदिक ऋषियों का प्राघोष है-तपस्या से ही ऋत और और सत्य उत्पन्न हुए 264 / तप से ही वेद उत्पन्न हुए 265. तप से ही ब्रह्म की अन्वेषणा की जाती है, 266 तप से ही मृत्यु पर विजय प्राप्त की जाती है और तप से ही ब्रह्मलोक प्राप्त किया जाता है, 267 तप से हो लोक में विजय प्राप्त की जाती है / 268 मनु ने तो कहा है-तप से ही ऋषिगण त्रैलोक्य में चराचर प्राणियों को देखते हैं।२६। इस विश्व में जो कुछ भी दुर्लभ और दुस्तर है, वह सव तपरया से साध्य है, तपस्या की शक्ति दुरतिक्रम है।२७. महापातकी तथा निम्न प्राचरण करने वाले भी तप से तप्त होकर किल्विषी योनि से मुक्त हो जाते 4hoc 261. "बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन" पृष्ठ 71-72 262. उत्तराध्ययन 28-35 263. उत्तराध्ययन 29 / 27 264. ऋग्वेद 10 / 19011 265. मनुस्मृति 12243 266. मुण्डकोपनिषद् 11118 267. अथर्ववेद 11 / 3 / 5 / 19 268. सत्पथब्राह्मण 3 / 4 / 4 / 27 269. मनुस्मृति 111237 270. मनुस्मृति 111238. 271. मनुस्मृति 111239 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org