________________ मुक्ति का अधिकार-पत्र है। आचारांग में सम्यगृष्टि का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा- सम्यकष्टि पाप का आचरण नहीं करता२५७. / सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है जो व्यक्ति विज्ञ हैं, भाग्यवान् है, पराक्रमी है पर यदि उसका दृष्टिकोण असम्यक है तो उसका दान, तप आदि समस्त पुरुषार्थ फल की आकांक्षा वाला होने से अशुद्ध होता है / 18 अशुद्ध होने से वह मुक्ति की ओर न ले जाकर बन्धन की ओर ले जाता है / इसके विपरीत मम्याग्टि वीतरागदृष्टि से सम्पन्न होने के कारण उसका कार्य फल की आकांक्षा से रहित और शुद्ध होता है / 16 प्राचार्य शंकर ने भी गीताभाष्य में स्पष्ट शब्दों में सम्यग्दर्शन के महत्त्व को व्यक्त करते हुए लिखा हैसम्यग्दर्शननिष्ठ पुरुष संसार के बीज रूप, अविद्या प्रादि दोषों का उन्मूलन नहीं कर सकें, ऐसा कभी सम्भव नहीं है / दूसरे शब्दों में कहा जाय तो सम्यगदर्शनयुक्त पुरुष निश्चित रूप से निर्वाण प्राप्त करता है।२६० अर्थात सम्यगदर्शन होने से गम यानि विषयासक्ति का उच्छेद होता है और राग का उच्छेद होने से मुक्ति होती है। ___ सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन प्राध्यात्मिक जीवन का प्राण है / प्राण-रहित शरीर मुर्दा है, वैसे ही सम्यग्दर्शनरहित माधना भी मुर्दा है / वह मुर्दे की तरह त्याज्य है। सम्यगदर्शन जीवन को एक सही दृष्टि देता है, जिससे जीवन उत्थान की ओर अग्रसर होता है। व्यक्ति की जैसी दृष्टि होगी, वैसे ही उसके जीवन की सष्टि होगी। इसलिए यथार्थ दृष्टिकोण जीवन-निर्माण की सबसे प्राथमिक आवश्यकता है। प्रस्तुत अध्ययन में उसी यथार्थ दृष्टिकोण को संलक्ष्य में रखकर एकहत्तर प्रश्नोत्तरों के माध्यम से माधना-पद्धति का मौलिक निरूपण किया गया है। ये प्रश्नोत्तर इतने व्यापक हैं कि इनमें प्रायः समग्र जैनाचार समा जाता है तप : एक विहंगावलोकन तीमवें अध्ययन में तप का निरूपण है। सामान्य मानवों की यह धारणा है कि जैन परम्परा में ध्यान-मार्ग या ममाधि-मार्ग का निरूपण नहीं है। पर उनकी यह धारणा सत्य-तथ्य से परे है। जैसे योगपरम्परा में अष्टाङ्गयोग का निरूपण है, वैसे ही जैन-परम्परा में द्वादशांग तप का निरूपण है। तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करने पर मम्यक् तप का गीता के ध्यानयोग और बौद्धपरम्परा के ममाधिमार्ग में अत्यधिक समानता है। नप जीवन का पोज है, शक्ति है। तपोहीन साधना खोखली है। भारतीय प्राचारदर्शनों का गहराई से अध्ययन करने पर सूर्य के प्रकाश की भांति यह स्पष्ट होगा कि प्राय: सभी प्राचार-दर्शनों का जन्म तपस्या की गोद में हया है। वे वहीं पले-पुसे और विकसित हुए हैं। अजित-केस कम्बलिन धार भौतिकवादी था। गोशालक एकान्त नियतिवादी था / तथापि वे तप-साधना में संलग्न रहे / तो फिर अन्य विचार-दर्शनों में तप का महत्त्व हो, इसमें शंका का प्रश्न ही नहीं है। यह सत्य है कि तप के लक्ष्य और स्वरूप के मन्बन्ध में मतैक्य का अभाव रहा है पर सभी परम्परामों ने अपनी-अपनी दृष्टि से तप की महत्ता स्वीकार की है। श्री भर तसिंह उपाध्याय ने "बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन' नामक ग्रन्थ में लिखा है—भारतीय संस्कृति में जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भी उदात्त एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, वह सब तपस्या से ही सम्भूत है, तपस्या से ही इस राष्ट्र का बल या प्रोज उत्पन्न हुअा है........तपस्या भारतीय दर्शनशास्त्र की ही नहीं, किन्तु उमके समस्त इतिहास की प्रस्तावना है............प्रत्येक चिन्तनशील प्रणाली चाहे वह प्राध्यात्मिक हो, चाहे -पाच रांग।३।३।२. 57. "समत्तदंसी न करेइ पाव' 258. सूत्रकृतांग 118 / 22-23 259. सूत्रकृतांग 118022-23 260. गीता-शांकरभाष्य 18112 [ 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org