________________ प्रस्तुत अध्ययन में कहा है-दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और जिसमें ज्ञान नहीं होता, उसका पाचरण सम्पन नहीं होता / सम्यक् प्राचरण के अभाव में प्रासक्ति से मुक्त नहीं बना जाता और विना प्रासक्तिमुक्त बने मुक्ति नहीं होती। इस होट से निर्वाण-प्राप्ति का मुल ज्ञान, दर्शन और चारित्र की परिपूर्णता है। कितने ही प्राचार्य दर्शन को प्राथमिकता देते हैं तो कितने ही प्राचार्य ज्ञान को / गहराई से चिन्तन करने पर ज्ञात होता है कि दर्शन के विना ज्ञान सम्यक नहीं होता। प्राचार्य उमास्वाति ने भी पहले दर्शन और उसके बाद ज्ञान को स्थान दिया है। जब तक प्टिकोण यथार्थ न हो तब तक माधना की सही दिशा का भान नहीं होता और उसके विना लक्ष्य तक नहीं पहुँचा जा सकता / सुत्तनिपात में भी बुद्ध कहते हैं—मानव का श्रेष्ठ धन श्रद्धा है२५' / श्रद्धा से मानव इम मंमार रूप बाढ़ को पार करता है।६५३ श्रद्धावान व्यक्ति ही प्रज्ञा को प्राप्त करता है। 253 गीता में भी श्रद्धा को प्रथम स्थान दिया है / गीताकार ने ज्ञान की महिमा और गरिमा का संकीर्तन किया है / "न हि ज्ञानेन मशं पविमिह विद्यते" कहने के बाद कहां-वह पवित्र जान उसी को प्राप्त होता है जो श्रद्धवान् है।"श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्" 544 / सैद्धान्तिक दृष्टि से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति युगपत होती है, अर्थात् दृष्टि मम्यक होते ही मिथ्या-ज्ञान सम्यग्ज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। अतएव दोनों का पौर्वापर्य कोई विवाद का विषय नहीं है / ___ ज्ञान और दर्शन के बाद चारित्र का स्थान है। चारित्र साधनामार्ग में गति प्रदान करता है / इसलिए चारित्र का अपने आप में महत्त्व है / जैन दृष्टि से रत्नत्रय के साकल्य में ही मोक्ष की निष्पत्ति मानी गई है / वैदिक परम्परा में ज्ञाननिष्ठा, कर्मनिष्टा और भक्तिमार्ग ये तीनों पृथक-पृथक् मोक्ष के माधन माने जाते रहे हैं। इन्हीं मान्यताओं के अाधार पर स्वतंत्र सम्प्रदायों का भी उदय हुआ / आचार्य शंकर केवल ज्ञान से और रामानुज केवल भक्ति से मुक्ति को स्वीकार करते हैं / पर जैन दर्शन ने ऐसे किसी एकान्तवाद को स्वीकार नहीं किया है। प्रस्तुत अध्ययन में चौथी गाथा से लेकर चौदहवीं गाथा तक ज्ञानयोग का प्रतिपादन है। पन्द्रहवीं गाथा से लेकर इकतीसवी गाथा तक श्रद्धायोग का निरूपण है / बत्तीसवी गाथा से लेकर चौतीसवीं गाथा तक कर्मयोग का विश्लेषण है / ज्ञान से तत्त्व को जानो, दर्शन से उस पर श्रद्धा करो, चारित्र से प्राश्रव का निरुधन करो एवं तप से कर्मों का विशोधन करो ! इस तरह इस अध्ययन में चार मार्गों का निरूपण कर उसे प्रात्मशोधन का प्रशस्त-पथ कहा है / इसी पथ पर चलकर जीव शिवत्व को प्राप्त कर सकता है / कर्म मुक्त हो सकता है / सम्यक्त्व : विश्लेषण उननीसवाँ अध्ययन सम्यक्त्व-पराक्रम है। जो साधक सम्यक्त्व में पराक्रम करते हैं, वे ही सही दिशा की ओर अग्रसर होते हैं। सभ्यक्त्व के कारण हो ज्ञान और चारित्र मम्यक् बनते है / प्राचार्य जिनभद्रगणो क्षमाश्रमण ने सम्यक्त्व और मम्यकदर्शन इन दोनों शब्दों का भिन्न-भिन्न अर्थ किया है / 255 पर सामान्य रूप से सम्यकदर्शन और सम्यक्त्व ये दोनों एक ही अर्थ में व्यवहत होते रहे हैं। सम्यक्त्व यथार्थता का परिचायक है। सम्यक्त्व का एक अर्थ तत्व-रूचि भी है / 256. इस अर्थ में सम्यक्त्व, सत्याभिरुचि या सत्य की अभीप्सा है। सम्यक्त्व 251. सुत्तनिपात 10/2 252. सुत्तनिपात 10 / 4 253. "सहहानो लभते पञ" -सुत्तनिपात 1066 254. गीता 10130 255. विशेषावश्यकभाप्य 187-90 256. अभिधान राजेन्द्रकोश, खण्ड 5, पृष्ठ 2425. [7 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org