________________ प्रस्तुत अध्ययन में दश विध ओघ-समाचारी का निरूपण हया है। इस सम्बन्ध में हमने विस्तार के साथ "जैन प्राचार : सिद्धान्त और स्वरूप' ग्रन्थ में निरूपण किया है।२४८ विशेष जिज्ञासु वहाँ देख सकते हैं। अनुशासन हीनता का प्रतीक : अविनय सत्ताईसवें अध्ययन में दुष्ट बैल की उद्दण्डता के माध्यम से अविनीत शिष्य का चित्रण किया गया है / संघ-व्यवस्था के लिए अनुशासन आवश्यक है। विनय, अनुशासन का अंग है तो अविनय अनुशासनहीनता का प्रतीक है / जो साधक अनुशासन की उपेक्षा करता है वह अपने जीवन को महान नहीं बना सकता। गगंगोत्रीय गाय मुनि एक विशिष्ट प्राचार्य थे, योग्य गुरु थे किन्तु उनके शिष्य उद्दण्ड, अविनीत और स्वच्छन्द थे। उन शिष्यों के अभद्र व्यवहार से ममत्व साधना में विघ्न उपस्थित होता हुआ देखकर प्राचार्य गाग्यं उन्हें छोडकर एकाकी चल दिये। अनुशासनहीन अविनीत शिप्य दुष्ट बैल की भाँति होता है जो गाड़ी को तोड़ देता है और स्वामी को कष्ट पहुँचाता है। इसी तरह अविनीत शिप्य प्राचार्य और गुरुजनों को कप्टदायक होता है। उत्तराध्ययन नियुक्ति में अविनीत शिप्य के लिए देशमशक, जलोका, वश्चिक प्रभति विविध उपमानों से अलंकृत किया है। इस अध्ययन में जो वर्णन है वह प्रथम अध्ययन विनवध त' का ही पूरक है / प्रस्तुत अध्ययन की निम्न गाथा को तुलना बौद्ध ग्रन्थ की थेरगाथा से की जा सकती है 'खलुका जालमा जोजा, दुस्सीसा वि हु तारिमा / / जोइया धम्मजाणम्मि भजन्ति धिइदुबला॥' -(उत्तराध्ययन 2718) तुलना कीजिए "ते तथा मिक्खित्ता बाला, अज्जमज्जमगारवा / नादयिस्सन्ति उपज्झाये, खलु को विय सारथि // " –(थेरगाथा 979) मोक्षमार्ग : एक परिशीलन अट्ठाईसवें अध्ययन में मोक्षमार्गगति का निरूपण हुआ है। मोक्ष प्राप्य है और उसकी प्राप्ति का उपाय माम है / प्राप्ति का उपाय जब तक नहीं मिलता तब तक प्राप्य प्राप्त नहीं होता / ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये मोक्षप्राप्ति के साधन हैं। इन साधनों की परिपूर्णता ही मोक्ष है। जैन प्राचार्यों ने तप का अन्तर्भाव चारित्र में करके परवर्ती साहित्य में विविध साधना का मार्ग प्रतिपादित किया है। प्राचार्य उमास्वति ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्षमार्ग कहा है / 246 प्राचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार और नियमसार में, प्राचार्य अमतचन्द्र पुरुषार्थसिध्युपाय में, आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में विविध-साधना मार्ग का विधान किया है। बौद्धदर्शन में भी शील, समाधि और प्रज्ञा का विधान किया गया है। गीता में भी ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग इस त्रिविध साधना का उल्लेख हुआ है। जैसे—जैनधर्म में तप का स्वतन्त्र विवेचन होने पर भी उसे गम्यक चारित्र के अन्तर्भूत माना गया है वैसे ही गीता के ध्यानयोग को कर्मयोग में सम्मिलित कर लिया गया है। इसी प्रकार पश्चिम में भी त्रिविध साधना और साधना-पथ का भी निरूपण किया गया है। स्वयं को जानो (Know Thyself) स्वयं को स्वीकार करो (Accept Thyself) और स्वयं ही बन जाम्रो (Be Thyself) ये पाश्चात्य परम्परा में तीन नैतिक प्रदेश उपलब्ध होते हैं / 250 248. "जैन प्राचार: सिद्धान्त और स्वरूप ग्रन्थ' --ले. देवेन्द्रमुनि पृष्ठ 899-910 249. 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्ग:। --तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय 1, सूत्र 1 250. (क) साहकोलाजी एण्ड माग्स, पृष्ठ 189. (ख) देखिए जैन, बौद्ध और गीता का साधनामार्ग डा. सागरमल जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org