________________ परिशिष्ट 1 उत्तराध्ययन की कतिपय सूक्तियाँ आणानिद्देसकरे, गुरूणमुबवायकारए / इंगियागारसंपन्ने, से विणीए त्ति वुच्चई // 1 / 2 / / ___ जो गुरुजनों की आज्ञाओं का यथोचित् पालन करता है, उनके निकट सम्पर्क में रहता है एवं उनके हर संकेत व चेष्टा के प्रति सजग रहता है वह विनीत कहलाता है। जहा सुणी पूइकन्नी, निक्कसिज्जई सम्वसो। एवं दुस्सील पडिणीए, मुहरी निक्कसिज्जई // 1 / 4 / / जिस प्रकार सड़े कानों वाली कुतिया जहां भी जाती है, निकाल दी जाती है; उसी प्रकार दुःशील उद्दण्ड और वाचाल मनुष्य भी धक्के देकर निकाल दिया जाता है / कणकुडगं चइत्ताणं, विट्ठ भुजइ सूयरे / एवं सीलं चइत्ताणं, दुस्सोले रमई मिए // 1 / 5 / / __ जिस प्रकार चावलों का स्वादिष्ट भोजन छोड़कर शूकर विष्टा खाता है, उसी प्रकार पशुवत् जीवन बिताने वाला अज्ञानी, शील-सदाचार को त्याग कर दुराचार को पसन्द करता है। विणए ठविज्ज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो // 16 / / अपना हित चाहने वाला साधक स्वयं को विनय-सदाचार में स्थिर करे / अटुजुत्ताणि सिविखज्जा, निरद्वाणि उ वज्जए // 1 / 8 / / अर्थयुक्त (सारभूत) बातें ही ग्रहण कीजिए, निरर्थक बातें छोड़ दीजिए। अणुसासिनो न कुप्पिज्जा // 16 // गुरुजनों के अनुशासन से कुपित-क्षुब्ध नहीं होना चाहिए / बहुयं मा य आलवे // 1 // 10 // बहुत नहीं बोलना चाहिए। आहच्च चंडालियं कटु, न निण्हविज्ज कयाइवि।।१।११।। साधक कभी कोई चाण्डालिक–दुष्कर्म कर ले तो फिर उसे छिपाने की चेष्टा न करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org