________________ परिशिष्ट 1: उत्तराध्ययन को कतिपय सूक्तियां] [689 कडं कडे ति भासेज्जा, अकडं नो कडे ति य / / 1 / 11 / / बिना किसी छिपाव या दुराव के किये कर्म को किया हुआ कहिए तथा नहीं किये को न किया हुअा कहिए। मा गलियस्सेव कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो // 1 / 12 / / बार-बार चाबुक की मार खाने वाले गलिताश्व की तरह कर्त्तव्य-पालन के लिए बार-बार गुरुओं के निर्देश की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। अप्पा चेव दमेयव्यो, अप्पा हु खलु दुद्दमो। अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परस्थ य / / 1 / 15 / / अपने आप पर नियन्त्रण रखना कठिन है। फिर भी अपने आप पर नियन्त्रण रखना चाहिए। अपने पर नियन्त्रण रखने वाला ही इस लोक तथा परलोक में सुखी होता है / वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य / माहं परेहि दम्मतो, बंधणेहि वहेहि य // 1 / 16 / / दूसरे वध और वन्धन आदि से दमन करें, इससे तो अच्छा है कि मैं स्वयं ही संयम और तप के द्वारा अपना दमन कर ल / हियं तं मण्णई पण्णो, वेसं होइ असाहुणो // 1 / 18 / / प्रज्ञावान् शिष्य गुरुजनों की जिन शिक्षानों को हितकर मानता है, दुर्बुद्धि शिष्य को वे ही शिक्षाएँ बुरी लगती हैं। काले कालं समायरे // 1 / 31 / / समयोचित कर्त्तव्य समय पर ही करना चाहिए। रमए पंडिए सासं, हयं भदं व वाहए // 1 // 37 // विनीत बुद्धिमान् शिष्यों को शिक्षा देता हुश्रा ज्ञानी गुरु उसी प्रकार प्रसन्न होता है जिस प्रकार भद्र अश्व (अच्छे घोड़े) पर सवारी करता हुआ घुड़सवार / अप्पाणं पि न कोवए // 1 // 40 // अपने आप पर भी कभी क्रोध न करे / नसिया तोत्तगवेसए // 1140 / / दूसरों के छलछिद्र नहीं देखना चाहिए / नच्चा नमइ मेहावी // 1 / 4 / / बुद्धिमान् ज्ञान प्राप्त करके नम्र हो जाता है / माइन्ने असणपाणस्स // 2 / 3 / / खाने-पीने की मात्रा-मर्यादा का ज्ञान होना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org