________________ 686] [उत्तराध्ययनसूत्र किल्विषिकी भावना-किल्विष का यहाँ अर्थ है दोष केवली, संघ, श्रुत (ज्ञान), धर्माचार्य एवं सर्व साधुओं की निन्दा, चुगली या वंचना या ठगी करना / अवगुण देखना और उनका ढिंढोरा पीटना आदि सभी चेष्टाएँ किल्विषिकी भावना के रूप हैं। इन्हें ही इस भावना के प्रकार कहा गया है।' प्रासुरी भावना--जो असुरों (परमाधार्मिक देवों) की तरह क्रूरता, उग्र क्रोध, कठोरता एवं कलह आदि से अोतप्रोत हो, उसे प्रासुरी भावना कहा जा सकता है / आसुरी भावना के प्रस्तुत गा. 266 में संक्षेप करके केवल दो ही हेतु या प्रकार बताए गए हैं। जबकि मूलाराधना एवं प्रवचनसारोद्धार में अनुबद्धरोषप्रसर एवं निमित्तप्रतिसेवन, इन दो के अतिरिक्त निष्कृपता, निरनुताप तथा संसक्त तप, ये तीन कारण या प्रकार बताये हैं / अनुबद्धरोषप्रसर के बृहद्वत्तिकार ने चार अर्थ बताए हैं-(१) निरन्तर क्रोध बढ़ाना, (2) सदैव विरोध करते रहना, (3) कलह आदि हो जाने पर भी पश्चात्ताप न करना, दूसरे द्वारा क्षमायाचना कर लेने पर भी प्रसन्न न होना / अतः इसी शब्द के अन्तर्गत मूलाराधना में बताए गए निष्कृपता, निरनुताप, अनुबद्धरोष-विग्रह आदि आसुरी भावना के प्रकारों का समावेश हो जाता है। सम्मोहा भावना-मोह (मिथ्यात्वमोह) वश उन्मार्ग में विश्वास, उपदेश, मार्ग-दोष या शरीरादि पर मोह रखना सम्मोहा (मोही) भावना है / सम्मोहा भावना के हेतुओं में यहाँ गा. 267 में शस्त्रग्रहणादि पांच प्रकार या कारण बताए हैं, जबकि प्रवचनसारोद्धार और मूलाराधना में अन्य प्रकार बताए गए हैं / इन दोनों में उन्मार्गदेशना, मार्गदूषण (मार्ग और दूषण) एवं मार्गविप्रतिप्रत्ति, ये तीन प्रकार तो समान हैं / शेष दो-मोह और मोहजनन, ये दो 'मूलाराधना' में नहीं हैं / शस्त्रग्रहण आदि कार्यों से उन्मार्ग की प्राप्ति और मार्ग की हानि होती है, इसलिए इसे सम्मोहा भावना कहा गया है। मार्गविप्रतिपत्ति का अर्थ है--सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग नहीं, ऐसा मानना या इनके प्रतिकूल प्राचरण करना / मोह का अर्थ है—गृढतम तत्त्वों में मूढ़ हो जाना या चारित्रशून्य तीथिकों का आडम्बर एवं वैभव देखकर ललचाना / मोहजनना-कपटवश अन्य लोगों में मोह उत्पन्न करना / 1. (क) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, भा. 2, पत्र 370 (ख) मूलाराधना 3 / 181 (ग) प्रवचनसारोद्धार मा. 643 2. (क) उत्तग. गुजराती भाषान्तर, भा. 2, पत्र 370 (ख) प्रणबंध-रोस-विग्गहसंसत्ततवो णिमित्तपडिसेवी। णि विकव-णिरणुतावी, प्रासुरिअं भावणं कुणदि।। -मूलाराधना 3 / 183 (ग) सइविग्गहमीलतं ससत्ततवो निमित्तकहणं च। निक्किवया वि अवरा, पंचमगं निरणकंपत्तं // -प्रवचनसागेद्धार, गा. 645 (ङ) वृहद्वृत्ति, पत्र 711 (क) संक्लेशजनकत्वेन शस्त्रग्रहणादीनामनन्तभवहेतुत्वात् अनेन चोन्मार्गप्रतिपत्त्या, मार्गविप्रतिपत्तिराक्षिप्ता तथा चार्थतो मोहीभावनोक्ता। -बवत्ति, पत्र 711 (ख) उम्मग्गदेमणो मग्गदूसणो मग्गविपडिवणी य। मोहेण य मोहित्तो सम्मोहं भावणं कुणई। --मूलाराधना 3 / 184 (ग) उमग्गदेसणा मग्गदूसणं मग्गविपडिवत्ती य।। मोहो य मोहजणणं एवं सा हवइ पंचविहा / —प्रवचनसारोद्धार, गा. 646, प्र. सा. वृत्ति, पत्र 183 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org