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________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति] [685 266. अणुबद्धरोसपसरो तह य निमित्तंमि होइ पडिसेवी / एएहि कारणेहि आसुरियं भावणं कुणइ // [266] जो सतत क्रोध की परम्परा को फैलाता रहता है तथा जो निमित्त-(ज्योतिष आदि) विद्या का प्रयोग करता है, वह इन कारणों से ग्रासुरी भावना का प्राचरण करता है। 267. सत्थग्गहणं विसभक्खणं च जलणं च जलप्पवेसो य / अणायार-भण्डसेवा जम्मण-मरणाणि बन्धन्ति // 1267] जो खड्ग आदि शस्त्र के प्रयोग से, विषभक्षण से तथा पानी में डूब कर प्रात्महत्या करता है; जो साध्वाचार-विरुद्ध भाण्ड-उपकरण रखता है, वह (मोही भावना का आचरण करता हुआ) अनेक जन्ममरणों का बन्धन करता है। विवेचन-पांच अप्रशस्त भावनाएँ–गाथा 256 में कान्दी आदि पांच भावनाएँ मृत्यु के समय संयम को विराधना करने वाली बतायी गई हैं। प्रस्तुत पांच (गा. 263 से 267 तक) गाथाओं में उनमें से प्रत्येक का लक्षण बताया गया है। मूलाराधना एवं प्रवचनसारोद्धार में भी इन्हीं पांच भावनाओं तथा इनके प्रकारों का उल्लेख मिलता है / ' कान्दी भावना-कन्दर्प के बृहवृत्तिकार ने पांच लक्षण बतलाए हैं—(१) अट्टहासपूर्वक हँसना, (2) गुरु आदि के साथ व्यंग्य में या निष्ठुर वक्रोक्तिपूर्वक बोलना, (3) कामकथा करना, (4) काम का उपदेश देना और (5) काम की प्रशंसा करना / यह कन्दर्प से जनित भावना कान्दी भावना है। कौत्कुच्य भावना का अर्थ है-कायकौत्कुच्य (भौंह, प्रांख, मुह आदि अंगों को इस प्रकार बनाना, जिससे दूसरे हँस पड़ें और वाक्कीत्कुच्य-विविध जीव-जन्तुओं की बोली बोलना, सीटी बजाना, जिससे दूसरे लोगों को हँसी पा जाए। आभियोगी भावना--अभियोग का अर्थ है-मंत्र, तंत्र, चूर्ण, भस्म आदि का प्रयोग करना / प्रस्तुत मा. 264 में ग्राभियोगी भावना के तीन हेतुओं या तीन प्रकारों का उल्लेख किया गया है(१) मंत्र, (2) योग और (3) भूतिकर्म। कुछ परिवर्तन-परिवर्द्धन के साथ ये ही प्रकार मूलाराधना और प्रवचनसारोद्धार में बताए गए हैं / योग के बदले वहाँ 'कौतुक' बताया गया है तथा प्रश्न (दूसरों के लाभालाभ सम्बन्धी प्रश्न का समाधान करना)। प्रश्नाप्रश्न (स्वप्न में विद्या द्वारा कथित शुभाशुभ वृत्तान्त दूसरों को बताना) तथा निमित्त-प्रयोग, इन तीनों का समावेश 'निमित्त' में हो जाता है। 1. (क) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, भा. 2, पत्र 368-369 / / (ख) मूलाराधना 3 / 179 (ग) प्रवचनसारोद्धार, गा. 641 (क) कन्दर्प-अट्टहासहसनम, अनितालापश्च गूर्वादिनाऽपि सह निष्ठरवक्रोक्त्यादिरूपा: कामकथोपदेश__ प्रशंसाश्च कन्दर्पः। -बृहद्वृत्ति, पत्र 709 (ख) प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, पत्र 180 (ग) मूलाराधना 398 पृ. वृत्ति / (घ) कोक्रुच्यं द्विधा कायकौक्रुच्य वाक् कौकुच्यं च। --बृहद्वति, पत्र 709 3. (क) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, भा. 2, पत्र 370 (ख) मंताभिओगकोदुग भूदियम्मं पउंजदे जो हु। इढिरससादहेदु, अभिओगं भावणं कुणइ // --मूलाराधना 31182 (ग) कोउय-भूइकम्मे, पसिहि तह य पसिणपसिणेहि। तह य निमित्तणं चिय पंचवियप्पा भवे साय॥ .-प्रवचनसारोद्धार गा. 644 (घ) बृहद्वृत्ति, पत्र 710 (ङ) प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, पत्र 181-182 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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