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________________ 684] [उत्तराध्ययनसूत्र समाधिमरण के लिए साधक हैं। आलोचना से व्रतनियमों की शुद्धि हो जाती है, जिनवचनों की निरतिचार अाराधना हो जाती है। प्रस्तुत गा. 262 में आलोचना को श्रवण के योग्य गुरु आदि कौन हो सकते हैं ? इसका भी निरूपण किया गया है-(१) जो अंग-उपांग प्रादि प्रागमों का विशिष्ट ज्ञाता हो, (2) देश, काल, प्राशय आदि के विशिष्ट ज्ञान से जो पालोचना करने वाले के चित्त में मधुरभाषणादि द्वारा समाधि उत्पन्न करने वाला हो और जो (3) गुणग्राही हो, वही गंभीराशय साधक आलोचनाश्रवण के योग्य है।' मिथ्यादर्शनरक्त, सनिदान आदि शब्दों के विशेषार्थ--मिथ्यादर्शनरक्त-मोहनीयकर्म के उदय से जनित विपरीत ज्ञान तथा प्रतत्त्व में तत्त्व का अभिनिवेश या तत्त्व में अतत्त्व का अभिनिवेश मिथ्यादर्शन है, जो पाभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, आभिनिवेशिक, अनाभोगिक और सांशयिक के भेद से पांच प्रकार का है। ऐसे मिथ्यादर्शन में जिनकी बुद्धि प्रासक्त है, वे मिथ्यादर्शनरक्त हैं। कामभोगासक्तिपूर्वक परभवसम्बन्धी भोगों को वांछा करना निदान है / जो निदान से युक्त हैं, वे सनिदान हैं / बोधि-जिनधर्म की प्राप्ति / आलोचना—शुद्धभाव से गुरु आदि योग्य जनों के समक्ष अपने दोष-अपराध या भूल प्रकट करना आलोचना है।' कान्दो आदि अप्रशस्त भावनाएँ 263. कन्दप्प-कोक्कुयाइं तह सोल-सहाव-हास-विगहाहि / विम्हावेन्तो य परं कन्दप्पं भावणं कुणइ / / [263] जो कन्दर्प (कामकथा) करता है, कौत्कुच्य (हास्योत्पादक कुचेष्टाएँ) करता है तथा शील, स्वभाव, हास्य और विकथा से दूसरों को विस्मित करता (हंसाता) है, वह कान्दी भावना का प्राचरण करता है। 264. मन्ता-जोगं काउं भूईकम्मं च जे पउंजन्ति / साय-रस-इड्ढिहेउं अभिओगं भावणं कुणइ / {264] जो (वैषयिक) सुख के लिए रस (धृतादि रस) और समृद्धि के लिए मंत्र, योग (तंत्र) और भूति (भस्म आदि मंत्रित करके देने का) कर्म का प्रयोग करता है, वह पाभियोगो भावना का आचरण करता है। 265. नाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स संघ-साहणं / माई अवण्णवाई किब्बिसियं भावणं कुणइ / [265] जो ज्ञान की, केवलज्ञानी की, धर्माचार्य को, संघ की तथा साधुओं की निन्दा (अवर्णवाद) करता है, वह मायाचारी किल्विषिकी भावना का सेवन करता है। 1. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा.४, पृ. 945, 952-953 2. वही, भा. 4, पृ. 946, 952-953 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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