________________ 674] [उत्तराध्ययनसून [210-211] कल्पोपग देवों के बारह प्रकार हैं-सौधर्म, ईशानक, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक एवं लान्तक; महाशुक्र, सहस्रार, पानत, प्राणत, पारण और अच्युत-ये कल्पोपग देव हैं / 212. कप्पाईया उजे देवा दुविहा ते वियाहिया / गेबिज्जाऽणुत्तरा चेव गेविज्जा नवविहा तहिं / / _[212] कल्पातीत देवों के दो भेद हैं-गैवेयकवासी और अनुत्तरविमानवासी / उनमें से ग्रैवेयक देव नौ प्रकार के हैं। 213. हेट्ठिमा-हेट्ठिमा चेव हेट्ठिमा-मज्झिमा तहा। हेट्ठिमा-उवरिमा चेव मज्झिमा-हेट्ठिमा तहा // 214. मज्झिमा-मज्झिमा वेव मज्झिमा-उवरिमा तहा। उवरिमा-हेट्ठिमा चेव उवरिमा-मज्झिमा तहा // 215. उवरिमा-उवरिमा चेव इय गेविज्जया सुरा। विजया वेजयन्ता य जयन्ता अपराजिया // 216. सव्वट्ठसिद्धगा चेव पंचहाऽणुत्तरा सुरा। इइ वेमाणिया देवा गहा एवमायओ। [213-214-215-216] (1) अधस्तन-अधस्तन (2) अधस्तन-मध्यम, (3) अधस्तनउपरितन, (4) मध्यम-अधस्तन-(५) मध्यम-मध्यम, (6) मध्यम-उपरितन, (7) उपरितन-अधस्तन, (8) उपरितन-मध्यम और (8) उपरितन-उपरितन-ये नौ अवेयक हैं। विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धक, ये पांच प्रकार के अनुत्तर देव हैं। इस प्रकार वैमानिक देव अनेक प्रकार के हैं। 217. लोगस्स एगदेसम्मि ते सव्वे परिकित्तिया। इत्तो कालविभागं तु वुच्छं तेसि चउम्विहं // [217] ये सभी लोक के एक भाग में स्थित रहते हैं, समग्र लोक में नहीं। इससे आगे उनके कालविभाग का चार प्रकार से कथन करूंगा। 218. संतई पप्पऽणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य // [218] ये प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं और स्थिति को अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। 219. साहियं सागरं एक्कं उक्कोसेणं ठिई भवे / भोमेज्जाणं जहन्नेणं दसवाससहस्सिया // [216] भवनवासीदेवों की उत्कृष्ट प्रायुस्थिति किंचित् अधिक एक सागरोपम की और जघन्य दस हजार वर्ष की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org