________________ छत्तीसवां अध्ययन : जीवाजीविभक्ति] [185] स्थलचर जीवों की कायस्थिति उत्कृष्टतः पूर्वकोटि-पृथक्त्व-अधिक तीन पल्योपम की और जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की है। और उनका अन्तर जघन्य अन्तर्मुहुर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। 187. एएसि वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो॥ [187] वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श तथा संस्थान की अपेक्षा से स्थलचरों के हजारों भेद हैं। खेचर स 188. चम्मे उ लोमपक्खी य तइया समुग्गपक्खिया। विययपक्खी य बोद्धव्या पविखणो य चउब्विहा / / [188] खेचर (आकाशचारी पक्षी) चार प्रकार के हैं--चर्मपक्षी, रोमपक्षी, तीसरे समुद्गपक्षी और (चौथे) विततपक्षी / 189. लोगेगदेसे ते सम्वे न सम्वत्थ बियाहिया / इत्तो कालविभागं तु वुच्छं तेसि चउन्विहं / / [186] वे लोक के एक भाग में होते हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं। इससे आगे खेचर जीवों के चार प्रकार से कालविभाग का कथन करूंगा। 190. संतई पप्पऽणाईया अपज्जवसिया वि य / ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य // / [160] प्रवाह को अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त हैं। किन्तु स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं। 191. पलिओवमस्स भागो असंखेज्जइमो भवे / ___आउट्टिई खहयराणं अन्तोमुहत्तं जहनिया // [191] उनकी आयुस्थिति उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की है और जघन्य अन्तमुहर्त की है। 192. असंखभागो पलियस्स उक्कोसेण उ साहिओ। पुवकोडीपुहत्तेणं अन्तोमुत्तं जहनिया // 193. कायठिई खहयराणं अन्तरं तेसिमं भवे / कालं अणन्तमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं // [192-163] खेचर जीवों की कायस्थिति उत्कृष्टतः कोटिपूर्व-पृथक्त्व अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग की और जघन्यत: अन्तमुहूर्त की है / और उनका अन्तर जघन्य अन्तर्मुहुर्त का है और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है / 194. एएसि वण्णओ चेव गन्धो रसफासमो। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org