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________________ 670] [उत्तराध्ययनसूत्र [164] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से इनके हजारों भेद हैं / विवेचन-सम्मूच्छिम और गर्भज : सम्मूच्छिम-माता-पिता के संयोग के बिना ही उत्पत्तिस्थान में स्थित औदारिक पुद्गलों को पहले-पहल शरीर रूप में परिणत कर लेना समूर्छन-जन्म है / गर्भज--माता-पिता के संयोग से उत्पत्तिस्थान में स्थित शुक्र-शोणित के पुद्गलों को पहलेपहल शरीर के लिए ग्रहण करना गर्भ जन्म है। गर्भ से जिसकी उत्पत्ति (जन्म) होती है, उसे गर्भव्युत्क्रान्तिक (गर्भोत्पत्तिक) या गर्भज कहते हैं।' जलचर, स्थलचर, खेचर-जल में विचरण करने और रहने वाले प्राणी (मत्स्य आदि) जलचर कहलाते हैं / स्थल (जमीन) पर विचरण करने वाले प्राणी स्थलचर या भूचर कहलाते हैं / इनके मुख्य दो प्रकार है--चतुष्पद (चौपाये) और परिसर्प (रंग कर चलने वाले)। तथा खेचर उसे कहते हैं, जो आकाश में उड़ कर चलता हो, जैसे-बाज आदि पक्षी / 2 एकखुर आदि पदों के अर्थ-एकखुर--जिनका खुर एक-अखण्ड हो, फटा हुआ न हो वे, जैसे--घोड़ा आदि / द्विखुर---जिनके खुर फटे हुए होने से दो अंशों में विभक्त हों, जैसे--गाय आदि / गण्डोपद-गण्डी अर्थात् कमलकणिका के समान जिसके पैर वृत्ताकार गोल हों, जैसे-हाथी आदि / सनखपद-नखसहित पैर वाले। जैसे-सिंह आदि। भुजपरिसर्प-भुजाओं से गमन करने वाले नकुल, मूषक आदि। उरःपरिसर्प-वक्ष-छाती से गमन करने वाले सर्प आदि / चर्मपक्षी--चर्म (चमड़ी) की पांखों वाले चमगादड़ आदि। रोमपक्षी-रोम-रोंए की पंखों वाले हंस आदि। समुद्गपक्षी--समुद्ग अर्थात्--डिब्बे के समान सदैव बंद पंखों वाले। विततपक्षी सदैव फैली हुई पंखों वाले 13 स्थलचरों की उत्कृष्ट कायस्थिति-गाथा 185 में पूर्वकोटि पृथक्त्व (दो से नौ पूर्वकोटि) अधिक तीन पल्योपम की बताई गई है, उसका अभिप्राय यह है कि पल्योपम की आयु वाले तो मर कर पुनः पल्योपम की स्थिति वाले स्थलचर होते नहीं हैं, किन्तु वे देवलोक में जाते हैं। पूर्वकोटि प्रायु वाले अवश्य ही इतनी स्थिति वाले के रूप में पुनः उत्पन्न हो सकते हैं। वे भी 7-8 भव से अधिक नहीं / अतः पूर्वकोटि आयु के पृथक्त्व भव ग्रहण करके अन्त में पल्योपम आयु पाने वाले स्थलचर जीवों की अपेक्षा से यह उत्कृष्ट कायस्थिति बताई गई है। जलचरों को उत्कृष्ट कायस्थिति-गाथा 176 में पूर्वकोटि पृथक्त्व को, अर्थात् 8 पूर्वकोटि की कही गई है। उसका प्राशय यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च-जलचर अन्तररहित उत्कृष्टतः आठ भव करते हैं, उन आठों भवों का कुल मायुष्य मिला कर पाठ पूर्वकोटि ही होता है। जलचर मर कर युगलिया नहीं होते, इसलिए युगलिया का भव नहीं आता। इस तरह उत्कृष्ट स्थिति के उक्त परिमाण में कोई विरोध नहीं आता। 1. (क) उत्तरा. (साध्वी चन्दना) टिप्पण पृ. 479.-490 (ख) तत्त्वार्थसूत्र 2032 (पं. सुखलाल जी) पृ. 67 2. उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, भा. 2, पत्र 3. उत्तरा. (साध्वी चन्दना) टिप्पण पृ. 479-480 4, वही, टिप्पण पृ. 450 5. उत्तरा. मुजराती भाषान्तर भा. 2, पत्र 357 .. ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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