________________ (उत्तराध्ययनसूत्र 178. एएसि वण्णो चेव गंधओ रसफासम्रो। संठाणादेसओ वा वि विहाणाई सहस्ससो॥ [178] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं। स्थलचर त्रस 179. चउप्पया य परिसप्पा दुविहा थलयरा भवे / चउप्पया चउविहा ते मे कित्तयओ सुण / / [176] स्थलचर जीवों के दो भेद हैं-चतुष्पद और परिसर्प / चतुष्पद चार प्रकार के हैं, उनका निरूपण मुझ से सुनो। 180. एगखुरा दुखुरा चेव गण्डपय-सणप्पया। हयमाइ-गोणमाइ-गयमाइ-सीहमाइणो॥ [180] एकखुर-अश्व आदि, द्विखुर-बैल आदि, गण्डीपद-हाथी आदि और सनखपदसिंह आदि हैं। 181. भुओरगपरिसप्पा य परिसप्पा दुविहा भवे। गोहाइ अहिमाई य एक्केकाऽणेगहा भवे // [181] परिसर्प दो प्रकार के हैं-भुजपरिसर्प---गोह आदि. और उरःपरिसर्प-सर्प आदि / इन दोनों के अनेक प्रकार हैं। 182. लोएगदेसे ते सव्वे न सम्वत्थ वियाहिया। __एत्तो कालविभागं तु वच्छं तेसिं चउन्विहं / / [182] वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं। इसके आगे अब चार प्रकार से स्थलचर जीवों के कालविभाग का कथन करूँगा / 183. संतई पप्पऽणाईया अपज्जवसिया वि य / ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य // [183] प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त हैं, किन्तु स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं। 184. पलिओवमाउ तिणि उ उक्कोसेण वियाहिया / ___ आउट्टिई थलयराणं अन्तोमुहत्तं जहनिया / / [184] उनकी आयुस्थिति उत्कृष्ट तीन पल्योपम की और जघन्य अन्तर्मुहुर्त की है। 185. पलिओवमाउ तिणि उ उक्कोसेण तु साहिया / पुवकोडीपुहत्तणं अन्तोमुहत्तं जहनिया // 186. कायट्टिई थलयराणं अन्तरं तेसिमं भवे / कालमणन्तमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org