________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति] 171. दुविहावि ते भवे तिविहा जलयरा थलयरा तहा / खहयरा य बोद्धध्वा तेसि भेए सुणेह मे // [171] इन दोनों (गर्भजों और सम्मूच्छिमों) के पुनः जलचर, स्थल पर प्रोर खेचर; ये तीन-तीन भेद हैं। उनके भेद तुम मुझसे सुनो / जलचरत्रस 172. मच्छा य कच्छभा य गाहा य मगरा तहा। सुसुमारा य बोद्धव्या पंचहा जलयराहिया // [172] जलचर पांच' प्रकार के बताए गए हैं. मत्स्य, कच्छा , ग्राह, मकर अोर सुसुमार। 173. लोएगदेसे ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया। एत्तो कालविभागं तु वुच्छं तेसि चउन्विहं // [173] वे सब लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, समग्र लोक में नहीं। इससे आगे अब उनके कालविभाग का चार प्रकार से कथन करूंगा। 174. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य / ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य॥ [174] वे प्रवाह को अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं, और भवस्थिति को अपेक्षा से सादि-सान्त हैं 175. एगा य पुवकोडीओ उक्कोसेण वियाहिया। आउट्ठिई जलयराणं अन्तोमुहत्तं जहन्निया // [175] जलचरों की प्रायुस्थिति उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व की ओर जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। 176. पुन्यकोडीपुहत्तं तु उक्कोसेण वियाहिया। कायट्टिई जलयराणं अन्तोमुहुत्तं जहन्निया // [176] जलचरों को कायस्थिति उत्कृष्ट पूर्वकोटि-पृथक्त्व को है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। 177. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नियं / विजढंमि सए काए जलयराणं तु अन्तरं // [177] जलचर के शरीर को छोड़ने पर, पुनः जलचर के शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org