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________________ 666] [उत्तराध्ययनसूत्र [167] नैरयिक जीवों की जो प्रायुस्थिति, बताई गई है, वही उनकी जघन्य और उत्कृष्ट कायस्थिति भी है। 168. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमहत्तं जहन्नयं / विजढंमि सए काए नेरइयाणं तु अन्तरं / / [168] नैरयिक शरीर को छोड़ने पर पुनः नैरयिक शरीर में उत्पन्न होने में जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का अन्तर है। 169. एएसि वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ / ___ संठाणादेसमो वावि विहाणाई सहस्ससो॥ [166] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से इनके हजारों भेद हैं / विवेचन-सात नरकवियों के अन्वर्थक नाम-रत्नप्रभापृथ्वी में भवनपति देवों के रत्ननिमित आवास स्थान हैं। इनकी प्रभा पृथ्वी में व्याप्त रहती है। इस कारण इस पृथ्वी का नाम रत्नप्रभा' या 'रत्नामा' पड़ा है। शर्करा कहते हैं--कंकड़ों को या लघुपाषाणखण्डों को। इनकी प्राभा के समान दूसरी भूमि की आभा है, इसलिए इसका नाम 'शर्करामा' या 'शर्कराप्रमा' है। रेत के समान जिस भूमि की कान्ति है, उसका नाम बालुकाप्रभा है। पंक अर्थात् कीचड़ के समान जिस भूमि की प्रभा है, उसका नाम पंकप्रभा है। धूम के सदृश जिस भूमि की प्रभा है, उसे धूमप्रभा कहते हैं / धूमप्रभा पृथ्वी में धुएँ के समान पुद्गलों का परिणमन होता रहता है / अन्धकार की प्रभा के समान जिस पृथ्वी की प्रभा है, वह तमःप्रभा पृथ्वी है, तथा गाढ़ अन्धकार के समान जिस पृथ्वी की प्रभा है, वह तमस्तमःप्रभा पृथ्वी है।' नैरयिकों की कायस्थिति-प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि जिस नैरयिक की जितनी जघन्य और उत्कृष्ट प्रायुस्थिति है, उसकी कायस्थिति भी उतनी ही जघन्य और उत्कृष्ट होती है, क्योंकि नै रयिक मरने के अनन्तर पुनः नैरयिक नहीं हो सकता / अतः उनकी आयुस्थिति और कायस्थिति समान है। अन्तर-गा. 168 में नरक से निकल कर पुनः नरक में उत्पन्न होने का व्यवधानकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त का बताया गया है। उसका अभिप्राय यह है कि नारक जीव नारक से निकल कर संख्यातवर्षायुष्क गर्भज तिर्यञ्च या मनुष्य में ही जन्म लेता है। वहाँ से अतिक्लिष्ट अध्यवसाय वाला कोई जीव अन्तर्मुहूर्त-परिमाण जघन्य आयु भोग कर पुनः नरक में उत्पन्न हो सकता है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च त्रस 170. पंचिन्दियतिरिक्खाओ दुविहा ते वियाहिया / सम्मुच्छिमतिरिक्खाओ गमवक्कन्तिया तहा // [170] पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीवों के दो भेद हैं, सम्मूच्छिम तिर्यञ्च और गर्भजतिर्यञ्च / 1. उत्तराप्रियशिनीटीका, भा. 4, पृ. 980 2. उत्तरा. गुजराती भाषान्तर भा. 2, पत्र 356 3. उत्तरा. (साध्वी चन्दना) टिप्पण, पृ. 479 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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