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________________ छत्तीसवां अध्ययन: जीवाजीवविभक्ति] 147. कुक्कुडे सिगिरीडी य नन्दावत्त य विछिए। डोले भिगारी य विरली अच्छिवेहए / / {147] कुक्कुड, शृगिरीटी, नन्दावर्त्त, बिच्छू, डोल, भृगरीटक (झींगुर या भ्रमरी), विरली, अक्षिवेधक 148. अच्छिले माहए अच्छिरोडए विचित्ते चित्तपत्तए। प्रोहिंजलिया जलकारी य नीया तन्तवगाविया // [148] अक्षिल, मागध, अक्षिरोडक, विचित्र, चित्र-पत्रक, ओहिंजलिया, जलकारी, नीचक और तन्तवक 149. इइ चउरिन्दिया एए ऽणेगहा एवमायओ। ___ लोगस्स एगदेसम्मि ते सव्वे परिकित्तिया // [146] इत्यादि चतुरिन्द्रिय के अनेक प्रकार हैं। वे सब लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, किन्तु सम्पूर्ण लोक में व्याप्त नहीं हैं / 150. संतई पप्पऽणाईया अपज्जवसिया वि य / ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य // [150] प्रवाह की अपेक्षा से वे सब अनादि-अनन्त हैं, किन्तु स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं। 151. छच्चेव य मासा उ उक्कोसेण वियाहिया। चउरिन्दियाउठिई अन्तोमुहत्तं जहन्निया / / [151] चतुरिन्द्रिय जीवों की आयुस्थिति उत्कृष्ट छह महीने की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। 152. संखिज्जकालमुक्कोसं अन्तोमुत्तं जहन्नयं / चउरिन्दियकायठिई तं कायं तु अमंचो॥ [152] उनकी कायस्थिति उत्कृष्ट संख्यातकाल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। चतुरिन्द्रिय पर्याय को न छोड़ कर लगातार चतुरिन्द्रिय-शरीर में उत्पन्न होते रहना कायस्थिति है। 153. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुत्तं जहन्नयं / विजढंमि सए काए अन्तरेयं वियाहियं / / [153] चतुरिन्द्रिय-शरीर को छोड़ने पर पुनः चतुरिन्द्रिय-शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का कहा गया है। 154. एएस वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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