________________ 662] [उत्तराध्ययनसूत्र 140. संतई पप्पऽणाईया अपज्जवसिया वि य / ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य // [140] प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त हैं किन्तु स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं। 141. एगूणपण्णहोरत्ता उक्कोसेण वियाहिया / तेइन्दियआउठिई अन्तोमुहुत्तं जहन्निया / [141] उनकी आयुस्थिति उत्कृष्टतः उनचास दिनों की और जघन्यतः अन्तर्मुहुर्त की है। 142. संखिज्जकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं / तेइन्दियकायठिई तं कायं तु अमुचओ॥ [142] उनकी कायस्थिति उत्कृष्ट संख्यातकाल की और जघन्य अन्तर्मुहर्त की है। श्रीन्द्रियकाय को न छोड़ कर लगातार त्रीन्द्रियकाय में हो उत्पन्न होने का काल कायस्थितिकाल है / 143. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुत्तं जहन्नयं / तेइन्दियजीवाणं अन्तरेयं वियाहियं / [143] श्रीन्द्रियकाय को छोड़ने के बाद पुनः त्रीन्द्रियकाय में उत्पन्न होने में जघन्य अन्तमुहर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का अन्तर होता है / 144. एएसि वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।। [144] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान को अपेक्षा से इन जीवों के हजारों भेद हैं। विवेचन-कर्पासास्थिमिजक : विशेषार्थ बिनौलों (कपासियों) में उत्पन्न होने वाले त्रीन्द्रिय जीव / / चतुरिन्द्रिय त्रस 145. चउरिन्दिया उ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया। पज्जत्तमपज्जत्ता तेसि भेए सुणेह मे // [145] जो चतुरिन्द्रिय जीव हैं, वे दो प्रकार के कहे गर हैं—पर्याप्त और अपर्याप्त / उनके भेद मुझ से सुनो। 146. अन्धिया पोत्तिया चेव मच्छिया मसगा तहा / __ भमरे कोउ-पयंगे य ढिकुणे कुकुणे तहा // [146] अधिका, पोत्तिका, मक्षिका, मशक (मच्छर), भ्रमर, कोट (टीड-टिड्डी), पतंगा, ढिंकुण (पिस्सू) कुकुण१. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 353 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International