________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति] 134. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहत्तं जहन्नयं / बेइन्दियजीवाणं अन्तरेयं वियाहियं // [134] द्वीन्द्रिय के शरीर को छोड़ कर पुन: द्वीन्द्रियशरीर में उत्पन्न होने में जो अन्तर है, वह जघन्य अन्तर्मुहर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। 135. एएसि वण्णो चेव गन्धओ रसफासो / संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो॥ [135] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान को अपेक्षा से इनके हजारों भेद होते हैं / विवेचन–कृमि आदि शब्दों के विशेषार्थ-कृमि -गंदगी में पैदा होने वाले कीट या कीटाणु / -सौमंगल नामक जीवविशेष / अलस-अलसिया या केंचया। मातवाहक-चडेल जाति के द्वीन्द्रिय जीव / वासीमुख वसूले की प्राकृति वाले द्वीन्द्रिय जीव / शंखनक--छोटे-छोटे शंख ( शंखोलिया ) / पल्लोय-काष्ठ-भक्षण करने वाले / अणुल्लक-छोटे पल्लुका / वराटककौड़ी, जलौक--जोंक / जालक-जालक जाति के द्वीन्द्रिय जीव / चन्दनक-अक्ष (चाँदनीये)।' / श्रीन्द्रिय त्रस 136. तेइन्दिया उ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया। पज्जत्तमपज्जत्ता तेसि भए सुणेह मे॥ [136] त्रीन्द्रिय जीवों के दो भेद हैं—पर्याप्त और अपर्याप्त / उनके भेदों को मुझ के सुनो। 137. कुन्थु-पिवोलि-उड्डंसा उक्कलुद्देहिया तहा / तणहार-कट्ठहारा मालुगा पत्तहारमा / [137] कुन्थु, चींटो, उद्देश (खटमल), उक्कल (मकड़ी). उपदेहिका (दीमक उद्दई), तृणाहारक, काष्ठाहारक (घुन), मालुक तथा पत्राहारक 138. कप्पासऽद्धिमिजा य तिदुगा तउसमिजगा। सदावरी य गुम्मी य बोद्धव्वा इन्दकाइया / / [138] कर्पासास्थिमिजक, तिन्दुक, पुभिजक, शतावरी (सदावरी), गुल्मी (कानखजूरा) और इन्द्रकायिक, (ये सब त्रीन्द्रिय) समझने चाहिए। 139. इन्दगोवगमाईया गहा एवमायओ। लोएगदेसे ते सम्वे न सम्वत्थ वियाहिया / / [136] (तथा) इन्द्रगोपक (बीरबहूटी), इत्यादि त्रीन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के कहे गए हैं / वे सब लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं / 1. (क) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, भा. 2, पत्र 352 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा.४, पृ. 866-867 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org