________________ 658] [उत्तराध्ययनसूत्र विवेचन-तेजस्काय के भेद-प्रभेद : अंगारे-अंगार-धमरहित जलता हुया कोयला / मुम्मुरेमुर्मुर-राख मिले हुए अग्निकण, चिनगारियाँ / अगणी-शुद्ध अग्नि या लोहपिण्ड में प्रविष्ट अग्नि / अच्ची-अचि-जलते हुए काष्ठ के साथ रही हुई ज्वाला / जाला-ज्वाला----प्रदीप्त अग्नि से विच्छिन्न अग्निशिखा, आग की लपटें / उक्का-उल्कापात, आकाशीय अग्नि / और विज्जु-विद्युत्-आकाशीय विद्युत्-विजली / प्रज्ञापना में इनके अतिरिक्त अलात, अशनि, निर्घात, संघर्ष-समुत्थित, एवं सूर्यकान्तमणि-निःसृत को भी तेजस्काय में गिनाया है। वायु-निरूपण 117. दुविहा वाउजीवा उ सुहमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो॥ [117] वायुकाय जीवों के दो भेद हैं-सूक्ष्म और बादर / पुनः उन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त, इस प्रकार दो-दो भेद हैं। 118. बायरा जे उ पज्जत्ता पंचहा ते पकित्तिया / उक्कलिया-मण्डलिया घण-गुजा सुद्धवाया य / / 119. संवट्टगवाते य उणेगविहा एवमायओ। एगविहमणाणत्ता सुहमा ते वियाहिया // [118-116] बादर पर्याप्त वायुकाय जीवों के पांच भेद हैं-उत्कलिका, मण्डलिका, घनवात, गुंजावात शुद्धवात और संवर्तक वात, इत्यादि और भी अनेक भेद हैं। सूक्ष्म वायुकाय के जीव एक ही प्रकार के हैं, उनके अनेक भेद नहीं हैं। 120. सुहमा सबलोगम्मि लोगदेसे य वायरा / इत्तो कालविभागं तु तेसि वुच्छं चरन्विहं // [120] सूक्ष्म वायुकाय के जीव सम्पूर्ण लोक में, और बादर वायुकाय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। इससे आगे अब वायुकायिक जीवों के कालविभाग का कथन चार प्रकार से करूंगा। 121. संतई पप्पऽणाईया अपज्जवसिया वि य / ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य // [121] वायुकाय के जीव प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं, और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। 122. तिण्णव सहस्साई वासाणुक्कोसिया भवे / पाउट्टिई वाऊणं अन्तोमुत्तं जहनिया // 1. (क) उत्तरा. गुज. भाषान्तर भा. 2, पत्र 351 (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 4, पृ. 856 (ग) प्रज्ञापना पद 1, पृ. 45 आगमप्रकाशन-समिति, ब्यावर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org