________________ छत्तीसवां अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति] [657 [10] जो बादर पर्याप्त तेजस्काय हैं, वे अनेक प्रकार के कहे गए हैं / जैसे-अंगार, मुर्मुर (भस्ममिश्रित अग्निकण), अग्नि, अचि (-दीपशिखा आदि) ज्वाला और 110. उक्का विज्जू य बोद्धध्वा गहा एवमायओ। एगविहमणाणता सुहुमा ते वियाहिया / [110] उल्का, विद्युत् इत्यादि / सूक्ष्म तेजस्काय के जीव एक ही प्रकार के हैं; उनके नाना प्रकार नहीं हैं। 111. सुहुमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य बायरा / इत्तो कालविभागं तु तेसि वुच्छ चउन्विहं // [111] सूक्ष्म तेजस्काय के जीव समग्र लोक में प्रोर बादर तेजस्काय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। इससे आगे उन तेजस्कायिक जोवों के चार प्रकार से कालविभाग का कयन करूंगा। 112. संतई पप्पऽणाईया अपज्जवसिया वि य / ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य॥ [112] वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं, और स्थिति को अपेक्षा से सादि-सान्त the 113. तिण्णेव अहोरत्ता उक्कोसेण वियाहिया / आउट्ठिई तेऊणं अन्तोमुहुत्तं जहनिया / / [113] तेजस्काय की आयुस्थिति उत्कृष्ट तीन अहोरात्र (दिनरात) की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। 114. असंखकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं / कायट्टिई तेऊणं तं कायं तु अमुचनो। [114] तेजस्काय को कायस्थिति उत्कृष्ट असंख्यातकाल की है और जघन्य अन्त मुहुर्त की है। तेजस्काय को छोड़ कर लगातार तेजस्काय में ही उत्पन्न होते रहना कायस्थिति है। 115. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं / विजदंमि सए काए तेउजीवाण अन्तरं // [115] तेजस्काय को छोड़ कर (अन्य कायों में उत्पन्न होकर) पुन: तेजस्काय में उत्पन्न होने में जो अन्तर है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है / 116. एएसि वण्णओ चेव गन्धमो रसफासो। ___संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो॥ [116] इनके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान को अपेक्षा से अनेक भेद हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org