________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्तिा [659 ____ [122] वायुका यिक जीवों की प्रायु-स्थिति उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष को और जघन्य अन्तमुहूर्त की है। 123. असंखकालमुक्कोसं अन्तोमुहत्तं जहन्नयं / कायट्टिई वाऊणं तं कायं तु अमुचओ। [123] वायुकायिक जीवों को कायस्थिति उत्कृष्ट असंख्यातकाल को है ओर जघन्य अन्तमुहूर्त की है। वायुकाय को न छोड़ कर लगातार वायु-शरीर में हो उत्पन्न होना कायस्थिति है / 124. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं / विजदंमि सए काए वाउजोवाण अन्तरं / / [124] वायुकाय को छोड़ कर पुनः वायुकाय में उत्पन्न होने में जो अन्तर (काल का व्यवधान) है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। 125. एएसि वण्णो चेव गन्धओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो॥ [125] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श अोर संस्थान को अपेक्षा से वायुकाय के हजारों भेद होते हैं / विवेचन-वायुकायिक प्रभेदों के विशेषार्थ--उत्कलिकावात-ठहर-ठहर कर चलने वाला वायु, अथवा घूमता हुआ ऊँचा जाने वाला पवन / मण्डलिकावात-धूल आदि के गोटे सहित गोलाकार घूमने वाला पवन, अथवा पृथ्वी में लगता हुआ चक्कर वाला पवन 1 घनवात-घनोदधिवातरत्नप्रभा आदि भूमियों के अधोवर्ती घनोदधियों का वायु / गुंजावात-गूंजता हुआ चलने वाला पवन / संवर्तकवात--जो वायु तृणादि को उड़ा कर अन्यत्र ले जाए, वह / ' उन्नीस प्रकार के वात-प्रज्ञापना में 16 प्रकार के वात बताए गए हैं-चार दिशाओं के चार, चार ऊर्ध्व अधो तिर्यक् विदिक् वायु, (9) वातोन्राम (अनियमित) (10) वातोत्कलिका (तूफानीपवन) (11) वातमण्डली, (अनिर्धारित वायु) (12) उत्कलिकावात, (13) मण्डलिकावात, (14) गुंजावात, (15) झंझावात, (वर्षायुक्त पवन) (16) संवतंकवात, (17) बनवात, (18) तनुवात, (16) शुद्धवात / उदार-त्रसकाय-निरूपण 126. अोराला तसा जे उ चउहा ते पकित्तिया। बेइन्दिय-तेइन्दिय चउरो-पंचिन्दिया चेव // [126] उदार अस चार प्रकार के कहे हैं-द्वीन्द्रिय, त्रोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय / 1. (क) मूलाराधना 212 मा. : "वादुम्मामो उक्कलिमंडलिगुजा महाघणु-तण य / ते जाण वाउजीवा, जाणित्ता परिहरेदबा // " (ख) उत्तरा. प्रियदशिनीटीका, भा. 4, पृ. 860-861 2. प्रज्ञापना पद 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org